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शांकर-वर्शनम्
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और रजत के अंशों में कोई भेद ही नहीं है, क्योंकि वे एक दूसरे से संसृष्ट अर्थात मिले हुए हैं। वहाँ का ज्ञान असंसर्ग ( भेद ) का विषय नहीं है । इसलिए वहाँ भेद का ग्रहण नहीं करते । ]
[ सच्चे रजत का ज्ञान करने के समय 'इदम्' और 'रजतम्' में ] स्वगत भेद का ग्रहण नहीं करते क्योंकि दोनों एक ही ज्ञान हैं । [ अवान्तर भेद होने से स्वगत भेद किया जाता है | सच्चे रजत का ज्ञान होने में 'इदम्' और 'रजतम्' दोनों इस तरह मिलते हैं कि अवान्तर-भेद का स्थान ही नहीं । ]
उसी प्रकार ग्रहण और स्मरण, ये दोनों ज्ञान भी दोष ( मानसिक दोष ) के 'कारण 'इदम्' के अंश तथा रजत के अंश में असंसर्ग अर्थात् भेद विद्यमान रहने पर भी उसका ग्रहण नहीं करते । और भेद का ग्रहण न करना ही तो समरूपता है । [ दोनों ज्ञानों के स्थान में तो एकता ही नहीं है- क्योंकि ज्ञान दो हैं । असंसर्ग और अवान्तर भेद की सम्भा - वना है । परन्तु दोष के कारण उसका ग्रहण नहीं हो पाता । विरोध का स्फुरण होने से ही असंसर्ग या भेद का ग्रहण होता है । जैसे सीपी और चांदी में भेद है वैसे ही तत् और इदम् में भी भेद है । प्रत्यक्ष में यद्यपि इदमंश प्रतीत होता है तथापि उससे विरुद्ध रहने - वाला तदंश स्मरण में दोष के कारण प्रतीत नहीं होता । वैसे ही स्मरण में यद्यपि रजतांश विषय बनता है तथापि दोष के ही कारण उसका विरोधी शक्तित्व प्रत्यक्ष में विषय नहीं बन पाता । इस प्रकार विरोध का स्फुरण नहीं हो सकने के कारण स्वरूप या विषय से विद्यमान रहने पर भी भेद ग्रहण नहीं होता । स्वरूप से विद्यमान रहने ग्रहण नहीं करना --- 'तत्' के रूप में जो परोक्षांश है उसकी प्रतीति दोष के के रूप में नहीं होती । विषय से विद्यमान रहने पर भी भेद का ग्रहण नहीं के कारण शुक्तित्व की प्रतीति प्रत्यक्ष के रूप में नहीं होती इसलिए । ] तदुक्तं गुरुमतानुसारिभिः
२६. ग्रहणस्मरणे
विवेकानवभासिनी ।
चेमे सम्यग्रजतबोधाच्च भिन्ने यद्यपि तत्त्वतः ॥
भेदाग्रहसमत्वतः । समक्षेकार्थगोचरः ।
पर भी भेद का
कारण स्मरण
-दोष
करना -
२७. तथापि भिन्ने नामाते सम्यग्रजतबोधस्तु
२८. ततो भिन्ने अबुद्ध्वा च ग्रहणस्मरणे इमे । समानेनैव रूपेण केवलं मन्यते जनः ॥ २९. अपरोक्षावभासेन समानार्थग्रहेण च । अवैलक्षण्यसंवित्तिरिति तावत्समथिता ॥ ३०. व्यवहारोऽपि तत्तुल्यस्तत एव प्रवर्तते ॥ ( प्रक० प० ४१३३ - ३७ ) इति ।