Book Title: Sarva Darshan Sangraha
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 736
________________ शांकर-वर्शनम् चांदी नहीं' का अर्थ है-'यह चांदी के व्यवहार के योग्य नहीं है। यदि हम रजत का निषेध भी मान लेते तो भी उसका अर्थ रजत के व्यवहार का निषेध ही होता । इस प्रकार दोनों स्थितियों में एक ही बात सिद्ध होती है। इसलिए 'नेदं रजतम्' का अर्थ लाघव से 'रजत के व्यवहार का निषेध' ही रखें। इसके अतिरिक्त रजत के निषेध की कल्पना क्यों करें?] तदुक्तं पञ्चिकाप्रकरणे३५. मिथ्याभावोऽपि तत्तुल्यव्यवहारप्रवर्तनात् । रजतव्यवहारांशे विसंवादयतो नरात् ॥ ३६. बाधकप्रत्ययस्यापि बाधकत्वमतो मतम् । प्रसज्यमानरजतव्यवहारानवारणात् ॥ (प्रक० प० ४।३८-३९) इति । तदनेन प्राचीनयोर्ज्ञानयोः सत्यत्वे कथं भ्रमत्वसिद्धिरिति शङ्का पराकृता । अयथाव्यवहारप्रवर्तकत्वेन तदुपपत्तः। इसे प्रकरणपञ्चिका में कहा गया है-'उस ( अनुभवजन्य व्यवहार ) के तुल्य व्यवहार का प्रवर्तन करने पर भी रजत के व्यवहार के अंश में मिथ्याभाव ( Falsity ) हो सकता है क्योंकि रजत को लेकर ही ये ( वेदान्ती ) लोग विवाद करते हैं। [ तात्पर्य यह है कि 'इदं रजतम्' में, वेदान्ती लोग रजत को भले ही मिथ्या सिद्ध करें क्योंकि व्यवहार का प्रवर्तक होने पर भी उसमें विवाद खड़ा हो सकता है परन्तु 'इदम्' पर तो कोई आपत्ति नहीं है । मिथ्यावादी भी 'इदं' को मिथ्या नहीं कहते । क्योंकि इसमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है। बाधक प्रतीति की दशा में भी इदमंश को अनुवृत्ति होती ही है। नेदं रजतम् में] जो बाधक की प्रतीति होती है उसकी बाधकता भी इसीलिए मानी जाती है कि प्राप्त (प्रसज्यमान ) रजत के व्यवहार का उससे निषेध हो ॥ ३६ ॥ (प्रकरणपञ्चिका, ४३८३९)। [ इन श्लोकों में कहना यही है-इदम्' सदा प्रमाण है। भ्रान्ति केवल स्मृति के रूप में होनेवाले रजत की है जिसमें विवाद है । वेदान्ती लोग बाधक की प्रतीति के अधीन मिथ्याज्ञान को मानते हैं। जिसका बाध ( प्रतिरोध ) किसी से हो गया वह मिथ्या है। इदम् के अनुभव का बाधक कोई नहीं है । अतः यह मिथ्या नहीं। अब रजतांश को लें। बाधा हो रही है जिसे बाधा न कहकर निषेध कहें। निषेध किसका? रजतव्यवहार का या रजत का? हम कहते हैं रजत के व्यवहार का ही। किसी भी दशा में तो हमें व्यवहार ही करना है । मिथ्या को लेकर लड़नेवाले से कहें कि बाध या निषेध व्यवहार का ही होता है और हमारी बात ही रह जाती है।] तो, इसके साथ ही साथ उस शंका का निराकरण कर दिया गया कि जब दोनों प्राचीन ज्ञान सत्य हैं तो भ्रम होने की बात कैसे चलती है। उस भ्रम की सिद्धि असामान्य व्यव

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