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सर्वदर्शनसंग्रहे
३२. शङ्खस्येन्द्रियदोषेण शुक्लिमा न च गृह्यते । केवलं द्रव्यमात्रं तु प्रथते रूपवजितम् ॥ ३३. गुणे द्रव्यव्यपेक्षे च द्रव्ये च गुणकाङ्क्षिणि । भासमाने तयोर्बुद्धिरसम्बन्धं न बुध्यते ॥ ३४. सत्यपीतावभासेन समे भाते मती इमे । व्यवहारोऽपि तत्तुल्य एवमत्रापि युज्यते || ( प्रक० प० ४।४८- ५१ ) इति ।
३१ ॥ उधर इन्द्रिय के
जैसा कि कहा गया है - ' पीत शंख के ज्ञान में [ चक्षु ] इन्द्रिय में विद्यमान पित्त का द्रव्यांश छोड़कर दोष के कारण केवल पीतत्व का ग्रहण होता है ॥ ही दोष के कारण शंख के शुक्लत्व का ग्रहण नहीं होता । रूप के द्रव्य का अंश ही उसमें प्रतीत होता है ॥ ३२॥
अंश को छोड़कर केवल
गुण को द्रव्य ( अपने आश्रयदाता द्रव्य ) की अपेक्षा है तो द्रव्य भी गुण ( अपने आश्रित गुण ) की आकांक्षा रखता है । ये दोनों जब इस रूप में प्रतीत होने लगते हैं। [ तो दोनों में वस्तुतः सम्बन्ध नहीं रहने पर भी उस ] असम्बन्ध को उन दोनों की बुद्धि ( ज्ञान ) नहीं समझ पाती ( = विषय नहीं बना सकती ) ॥ ३३ ॥ ये दोनों ज्ञान सचमुच के पीत - गुण की प्रतीति की तरह प्रतिभासित होते हैं । इसलिए दोनों का व्यवहार ( = पीत स्वर्ण और पीत शंख) समान ही रहता है । ऊपर की तरह यह व्यवहार भी युक्तियुक्त है ॥ ३४ ॥' ( प्रकरणपचिका ४४८-५१ ) ।
( १२. 'नेवं रजतम्' की सिद्धि - मीमांसक - मत )
नन्विदं रजतमिति भ्रान्तिज्ञानानभ्युपगमे रजतप्रसक्तेरसत्वान्नेदं रजतमिति निषेधः कथं कलधौताभावं बोधयतीति चेत्-नैष दोषः । भेदाग्रहप्रसञ्जितस्य शुक्तौ रजतव्यवहारस्य निषेधस्वीकारेण कल्पनालाघवसद्भावात् ।
[ वेदान्ती लोग फिर शंका करते हैं ] कि यदि आप 'इदं रजतम्' में भ्रान्तिज्ञान नहीं मानेंगे तो रजत की प्राप्ति का अभाव रहेगा ( वास्तव में चांदी तो वहीं है नहीं ) इसलिए 'यह चांदी नहीं है' इस प्रकार का निषेध चांदी के अभाव का बोध कैसे करायेगा ? [ निषेध किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर ही काम देता है । किसी स्थान पर पानी की प्रसक्ति होने पर ही कह सकते हैं कि यहाँ पानी नहीं है । जहाँ चांदी है ही नहीं, वहीं पर 'चांदी नहीं है' वाक्य अव्यावहारिक हो जायगा । ]
[ मीमांसक कहते हैं कि ] इनमें तनिक भी दोष नहीं है। सीपी में भेदः ग्रहण न हो सकने के कारण वहाँ रजत का व्यवहार किया गया है उसी ( व्यवहार ) का निषेध यहाँ स्वीकार किया गया है, जिसमें कल्पना का लाघव भी होता है । [ तात्पर्य यह है कि 'यह