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सर्वदर्शनसंग्रहे
टुकड़े का ग्रहण भेदों (विशेषों, Particulars ) से रहित होकर किया जाता है ॥ २० ॥ सीपी में जो विशेष गुण हैं जिनसे उसका पार्थक्य रजत से स्पष्ट रूप में जाना जा सकता है, वे अभिभूत ( Overruled ) होने के कारण ज्ञात नहीं होते । [ इन्द्रियों का दोष इतना प्रबल हो जाता है कि वह सीपी के गुणों को प्रकट होने देता ही नहीं-जिससे न तो हम सीपी का सीपी के रूप में ज्ञान कर सकते और न ही सीपी और चांदी का भेद कर सकते । 'इदं रजतम्' के व्यवहार के समय इतना ही पता रहता है, इदं = कोई द्रव्य जिसके विशेष गुण अज्ञात हैं । ] तो, उस समय द्रव्य की सामान्य रूपता ही ज्ञात होती है ॥ २१ ॥
'उसके बाद रजत की स्मृति उत्पन्न होती है । उस स्मृति से भी, मानसिक दोष के कारण तत्त्वांश के ज्ञान ( परामर्श ) से शून्य तथा सीपी से विवेचित ( अलग किये गये ), रजत को विषय नहीं बनाया जाता-इस प्रकार रजतज्ञान की सिद्धि की जायगी। [ दोनों श्लोंकों का अन्वय एक साथ ही है तयापि स्मृत्या मनो....... विवर्जितं शुक्तेविवेचितं रजतं नैव विषयीकृत्य ( व्यवस्थापितम् )1] ॥ २२-२३ ॥ प्रकरणपञ्चिका, ४।२६-२९)। २४. न ह्यसंनिहितं तावत्प्रत्यक्षं रजतं भवेत् ।
लिङ्गाद्यभावाच्चान्यस्य प्रमाणस्य न गोचरः॥ २५. परिशेषात्स्मृतिरिति निश्चयो जायते पुनः।
(प्रक० ५० ४।३१-३२) इति । ___'पहले तो यही देखें कि रजत सामने में है नहीं, अतः वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। लिंग ( Middle term ) आदि न होने से वह अन्य प्रमाणों ( अनुमान आदि ) का विषय भी नहीं बन सकता ॥ २४ ॥ इसलिए परिशेषतः (और कोई साधन नहीं होने के कारण अन्त में ) यही निश्चय करना पड़ता है कि रजतज्ञान स्मृति ही है ॥ २५ ॥' ( प्रकरणपञ्चिका, ४।३१-३२ )।
विशेष—इस प्रकार ग्रहण और स्मरण से 'इदं रजतम्' की सिद्धि की गई । अब इस पक्ष पर वेदान्ती पुनः प्रहार करने का विचार कर रहे हैं।
( ११ घ. ग्रहण और स्मरण में अभेद या सारूप्य ). ननु किमिदमेककं व्यवहारकारणमुत संभूय ? न प्रथमः। देशभेदेन प्रवृत्तिसङ्गात् । न चरमः । प्रयत्नायोगपद्याज्ज्ञानायोगपद्यात्-(वै० सू० ३।२।३ ) इत्यादिना ज्ञानयोगपद्यनिषेधात् । अतो ज्ञानद्वयं हेतुरित्ययुक्तं वच इति चेत्-मवं वोचः । अविनश्यतोः सहावस्थाननिषेधेऽपि विनश्यदविनश्यतोः सहावस्थानस्यानिषिद्धत्वेन निरन्तरोत्पन्नयोस्तदुपपत्तेः।