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सर्वदर्शनसंग्रहे
तस्माज्ज्ञातव्य इत्यादीनामविधायकत्वात् 'अर्ह कृत्यतृचश्च' ( पाणि० सू० ३।३।१६९ ) इति कृत्यप्रत्ययानामहार्थे विधानादर्हार्थतैव व्याख्येया । तथा च सर्वेषां वेदान्तवाक्यानामुपक्रमोपसंहारा दिषविधतात्पर्योपेतत्वात्
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नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावब्रह्मात्मपरत्वमास्थेयम् ।
इसलिए ' ज्ञातव्य:' इत्यादि शब्द विधान करनेवाले नहीं है । पाणिनि ने 'अहे कृत्य - तृचश्च' ( पा० सू० ३ | ३ | १६९ ) अर्थात् योग्यता के अर्थ में कृत्य और तृच् प्रत्यय भी होते हैं - इस सूत्र में अर्ह ( योग्यता ) के अर्थ में कृत्य प्रत्ययों ( तव्यत्, तव्य, अनीयर ण्यत् क्यप् ) का विधान किया है। अतः इन शब्दों की अर्हता या योग्यता के अर्थ में ही व्याख्या करनी चाहिए । [ फलतः ज्ञातव्य का अर्थ है ज्ञान के योग्य, द्रष्टव्य = देखने के योग्य 1 ]
इस प्रकार चूंकि सारे वेदान्तवाक्य उपक्रम, उपसंहार आदि छह प्रकार के तात्पर्य - निर्णायक लिंगों से युक्त हैं, अतः ये सव-के-सब नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाववाले ब्रह्म या आत्मा का ही प्रतिपादन करते हैं - ऐसा मानना चाहिए ।
विशेष- इस तरह जो प्रश्न चल रहा था कि ब्रह्म की सिद्धि के लिए प्रमाण क्या है, उसका समुचित उत्तर दे दिया गया कि आगम ही ब्रह्म की सिद्धि के लिए प्रमाण है । एक रूप से यहाँ इसकी भी विवेचना हो गई कि शास्त्रों का विषय ब्रह्म है । ऊपर कहा था कि शास्त्र का प्रयोजन भी है, जो है - अध्यास की निवृत्ति । अब उसकी विवेचना करेंगे |
( १०. अध्यास का निरूपण - प्रपंच का विवर्त रूप होना ) निष्प्रदेशे परमाणौ प्रदेशवृत्तित्वेनाभिमतस्य संयोगस्य दुरुपपादनतया तन्निबन्धनस्य द्वयणुकस्यासिद्धौ द्वयणुकादिक्रमेण आरम्भवादासम्भवादचेतनायाः प्रकृतेर्महदादिरूपेण परिणामवादासम्भवाच्च, ख्यातिबाधान्यथानुपपत्त्यानिर्वचनीयः प्रपश्वश्चिद्विवर्त इति सिद्धम् । स्वरूपापरित्यागेन रूपान्तरापत्तिविवर्त इति सत्यमिथ्याख्यावभास इति । अवभासोऽध्यास इति पर्यायः ।
अवयवों में वृत्ति होने पर संयोग उत्पन्न होता है, इसे सभी मानते हैं । यह संयोग अवयवों ( प्रदेश ) से रहित परमाणु में सिद्ध करना कठिन है, इसलिए उस ( संयोग ) पर ही आधारित ( निबन्धन ) द्वयक की भो सिद्धि नहीं हो सकती । फलतः द्वणुक आदि के क्रम से उत्पत्ति माननेवाला आरम्भवाद ( न्याय-वैशेषिक से सम्मत सिद्धान्त ) की सिद्धि असम्भव है । इसी प्रकार अचेतन प्रकृति की परिणति ( विकास ) महत् आदि तत्त्वों के क्रम से माननेवाला परिणामवाद ( सांख्यमत ) भी असम्भव है । [ आरम्भवाद या परिणामवाद के अयुक्त हो जाने पर यह संसार असत् ही न मान लें क्योंकि इसक