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शांकर-दर्शनम्
इसे न्यायवीथी ( = प्रकरणपञ्चिका का चतुर्थ प्रकरण -- प्रभाकरमत के अनुसार ग्रन्थ ) में शालिकनाथ ( मीमांसक, समय – ७९० ई०, कृतियाँ - शाबरभाष्य-व्याख्या, प्रकरणपञ्चिका ) ने कहा है- 'हम यहाँ कहते हैं कि जिस विज्ञान में जो पदार्थ प्रतीत होता है वही उस ज्ञान का विषय ( अर्थात् वेद्य ) होता है । वेद्य या अवेद्य होने का लक्षण किसी दूसरे में नहीं होता है ॥ १४ ॥ 'यह चांदी है' इसमें चांदी की ही प्रतीति होती है । अतः इस प्रतीति का विषय चाँदी ही बन सकती है सीपी नहीं, क्योंकि सीपी की प्रतीति तो नहीं हो रही है ॥ १५ ॥ इस प्रकार एक पदार्थ का दूसरे रूप में प्रतीत होना उस प्रतीति (ज्ञान) के द्वारा ही खण्डित हो गया, क्योंकि जब एक पदार्थ भासित ( प्रतीत ) हो रहा है तब दूसरा पदार्थ भी भासित नहीं हो सकता || १६ || ( प्रकरणपञ्चिका ४।२३-२५ ) ।
विशेष – इन सभी श्लोकों का मुख्य अर्थ यही है कि जिसकी प्रतीति होती है, वही विषय है । घट की प्रतीति हो रही है तो ज्ञेय घट ही है, पट नहीं । चांदी की प्रतीति होने पर विषय भी चांदी ही है, सीपी नहीं । यदि सीपी की प्रतीति हो तो भले ही सीपी को विषय मान सकते हैं |
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( ११ क. मिथ्याज्ञान के लिए कारण सामग्री का अभाव )
किं च मिथ्याज्ञानोत्पत्तौ सामग्री न समस्ति । किं केवलानीन्द्रियादीनि दोषदूषितानि वा ? नाद्यः । तेषां समीचीनज्ञानजननसामर्थ्योपलम्भात् । अन्यथा समीचीनं रजतज्ञानं न कदाचिदुदयमासादयेत् । न द्वितीयः । दोषाणामत्सगिक कार्यप्रसवशक्तिप्रतिबन्धमात्रप्रभावत्वात् ।
इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि मिथ्याज्ञान की उत्पत्ति के लिए कारण सामग्री भी नहीं है । प्रश्न है कि क्या एकमात्र इन्द्रियाँ ही कारण हैं या दोषों से दूषित इन्द्रियाँ कारण हैं ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रियों में सम्यक् ( Correct ) ज्ञान उत्पन्न करने की सामर्थ्य देखी जाती है । यदि ऐसा नहीं होता तो चांदी का ठीक ज्ञान कभी उत्पन्न हो ही नहीं सकता था ।
दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोष कार्योत्पादन की स्वाभाविक ( औत्सfre ) शक्ति का ही प्रतिबन्ध भर कर सकते हैं, [ उसमें किसी अपूर्व शक्ति का उत्पादन नहीं कर सकते । ]
न हि दुष्टं कुटजबीजं वटाङ्कुरं जनयितुमीष्टे । न वा तैलकलुषितं शालिबीजमशाल्यङ्कुरजननायालम् । किं तु स्वकार्यं न करोति ।
ननु दावदहनदग्धस्य वेत्रबीजस्य कदलीकाण्डजनकत्वं दृष्टमिति चेत्तन्न स्थाने । दग्धस्यावेत्रबीजत्वेन दोषाणां विपरीतकार्यकारित्वं प्रत्यनुदाहरणात् ।