________________
६८६
सर्वदर्शनसंग्रहे
प्रकार प्रत्यक्षात्मक तथा स्मरणात्मक दोनों ज्ञानों में विषय या स्वरूप की दृष्टि से भेदग्रहण न कर सकने के कारण, ये दोनों ज्ञान, वास्तव में भिन्न रहने पर भी, 'इदं रजतम्' वाक्य में अभेद का व्यवहार चलाते हैं । चाँदी का इच्छुक व्यक्ति वहाँ इसलिए प्रवृत्त होता है कि 'यह चाँदी नहीं है' इस रूप में भेद का ज्ञान उसे नहीं है । यही अख्यातिवाद है ।
अथ कलधौतबोधकरणसंस्का रोद्बोधका रणत्वेन तद्द्वारा रजतज्ञानकारणत्वादालम्बनत्वं मन्यसे तदपि न संगच्छते । चक्षुरादीनामपि कारणत्वेन विषयत्वापातात् ।
अथ भासमानतया विषयत्वमिष्यते, तदप्यश्लिष्टम् । रजतनिर्भासस्य शुक्तिकालम्बनत्वानुपपत्तेः । यस्मिन्विज्ञाने यदवभासते तत्तदालम्बनम् । अत्र च कलधौतानुभवः शुक्तिकालम्बनत्वकल्पनायां विरुध्यते ।
( २ ) अब यदि आप यह कहें कि चाँदी ( कलधौत ) का बोध करानेवाले संस्कार के जाग जाने के कारणस्वरूप उसके द्वारा हो रजत के ज्ञान का कारण होने से सीपी को हम विषय मानते हैं तो यह मत भी संगत नहीं है । [ रजत के ज्ञान के ] कारण तो चक्षु आदि भी हो सकते हैं, तो क्या आप उन्हें भी विषय मानने को तैयार हैं ? [ रजत का स्मरणात्मक ज्ञान उसके संस्कार के उद्बोध से उत्पन्न होता है। सीपी चूंकि उक्त संस्कार को जगाती है इसलिए रजतज्ञान का कारण सीपी है - सीपी विषय है और रजत का ज्ञान होता है । परन्तु यदि कारणों को विषय मानते चलें तो रजतज्ञान के विषयों का पहाड़ खड़ा हो जायगा -नेत्र आदि भी तो कारण हैं । ]
( ३ ) अब यदि यह कहें कि प्रतीत होती है इसीलिए उसे विषय मानते हैं तो यह भी युक्तिसंगत नहीं है । चाँदी की प्रतीति सीपी पर निर्भर करे, यह सम्भव नहीं । जिसके ज्ञान में जो प्रतीत होता है वही उसका विषय ( आलम्बन ) है । यहाँ यदि सोपी को विषय मानकर चाँदी का अनुभव करें तो यह नियम के विरुद्ध होगा । [ सीपी को विषय मानेंगे तो सीपी का ही अनुभव होगा, चांदी का नहीं । फलतः सीपी को विषय मानने पर चांदी की अनुभूति नहीं होगी - यह निश्चित हुआ । ]
तथा चाचकथन्न्यायवीथ्यां शालिकनाथः१४. अत्र ब्रूमो य एवार्थो यस्यां संविदि भासते । वेद्यः स एव नान्यद्धि वेद्यावेद्यत्वलक्षणम् ॥ १५. इदं रजतमित्यत्र रजतं त्ववभासते ।
तदेव तेन वेद्यं स्यान्न तु शुक्तिरवेदनात् ॥ १६. तेनान्यस्यान्यथा भासः प्रतीत्यैव पराहतः । अन्यस्मिन्भासमाने हि न परं भासते यतः ॥ ( प्रकरण प० ४।२३ - २५ ) इति ।
--