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शांकर-दर्शनम्
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पहला विकल्प [ कि शाब्दज्ञान ही विधेय है ] ठीक नहीं है, क्योंकि जो शक्ति शब्द और उसके अर्थ की संगति ( सम्बन्ध ) जान चुका है तथा जिसने शब्दशास्त्र ( व्याकरण ) तथा न्यायतत्त्व ( मीमांसाशास्त्र ) का अध्ययन समाप्त कर लिया है वह तो विधि के बिना भी केवल सुने गये शब्द से ही शाब्दज्ञान पा सकता है, [ इसके पृथक् विधान की अपेक्षा नहीं है । ]
दूसरा विकल्प [ कि भावना विधेय है ] भी ठीक नहीं, क्योंकि भावना ( पुनः पुनः चिन्तन करना, निदिध्यासन ) कारण है ज्ञान के प्रकर्ष का जिसकी सिद्धि अन्वय और व्यतिरेक से होती है । इसलिए अपने आप प्राप्त होने के कारण भावना विधेय नहीं है । आप भी उसे ही विधि मानते हैं जो अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कराये । [ अभिप्राय यह हैअग्नि के सन्निकर्ष से शीतपीड़ा की निवृत्ति होती है, उसका सन्निकर्ष न होने से शीतपीड़ा निवृत्त नहीं होती । इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक से अग्नि के सन्निकर्ष को शीत के विनाश का कारण जान लेते हैं । उसे बताने के लिए ऐसा विधान ( Injunction ) नहीं देखा जाता कि शीत के विनाश के लिए अग्नि का सेवन करना चाहिए । जो किसी रूप में ज्ञात हो जाय उसे बताने के लिए विधि नहीं होती । वही दशा ज्ञानप्रकर्ष ( कार्य ) और भावना ( कारण ) की है। भावना होने से ज्ञानातिशय होता है, नहीं होने से ज्ञानातिशय का अभाव देखते हैं । इस प्रकार भावना को लोग पहले से ही जान लेते हैं । यही कारण है कि इसके लिए विधि की उपेक्षा नहीं है । विधि के बिना भी भावना प्राप्त है ।
तृतीये साक्षात्कारः किं ब्रह्मस्वरूपः किं वाऽन्तःकरणपरिणामभेद: ? नाद्यः । तस्य नित्यत्वेनाविधेयत्वात् । नापि द्वितीयः । आनन्दसाक्षात्काररूपतया फलत्वेनाविधेयत्वात् ।
तीसरे विकल्प में भी प्रश्न है कि ब्रह्म के स्वरूप में साक्षात्कार विधेय है या मन के परिणाम के एक विशेष भेद के रूप में ? पहला विकल्प इसलिए ठीक नहीं है कि ब्रह्म का स्वरूप नित्य है अतः वह विधान के योग्य नहीं है । [ जिसका करना सम्भव है वही विधेय होता है । जिसकी या तो सत्ता कभी नहीं होती ( जैसे खरहे की सींग ) या नित्य रूप से सत् हो ( जैसे ब्रह्म का स्वरूप ) ये दोनों ही कभी भी करणीय नहीं हो सकते । इसलिए इनका विधान सम्भव नहीं । असत् तो कारकों के व्यापार के बाद भी सत्ता धारण नहीं कर सकता और सत् पहले से सिद्ध रहने के कारण कारकों के व्यापार की अपेक्षा नहीं रखता । ] दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं, क्योंकि आनन्द का साक्षात्कार तो इसका फल है अतः वह विधेय नहीं । [ स्मरणीय है कि फल को लक्ष्य करके उसके उपाय का विधान किया जाता है, जैसे स्वर्ग के उद्देश्य से याग का विधान । स्वयं फल का ही विधान नहीं होता है | आनन्द तो अन्तःकरण का परिणाम है उसका साक्षात्कार ही तो फल है जिसके विधान की अपेक्षा नहीं है । ]