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सर्वदर्शनसंग्रहेमिष्टे । अहमिहास्मि सदने जानान इति प्रादेशिकत्वग्रहणात् । न चेदं देहस्य प्रादेशिकत्वं प्रतिभासत इति वेदितव्यम् । अहमित्युल्लेखायोगात् ।
कणाद या गौतम आदि के द्वारा स्वीकृत जो आत्मा है उसकी भी प्रतीति [ 'अहम्' के अनुभव से ] नहीं होती है अत: 'अहम्' के अनुभव को अध्यस्त आत्मा का ही विषय समझना चाहिए । [ अब यह दिखलाते हैं कि न्याय-वैशेषिक में स्वीकृत आत्मा का प्रतिभास क्यों नहीं होता- ] यह 'अहम्' का अनुभव आत्मा के विभुत्व का बोध नहीं करा सकता। [ स्मरणीय है कि वैशेषिक दर्शन में आत्मा को विभु मानते हैं । 'अहम्' के अनुभव में विभुत्व का कहीं लेश भी नहीं है । अतः वैशेषिकों के द्वारा सम्मत आत्मा भी 'अहम्' के रूप में प्रतिभासित नहीं होती । ] कारण यह है कि 'मैं यहाँ पर घर में जाननेवाला हूँ' इस वाक्य में [ 'अहम्' अनुभववाली आत्मा की ] प्रादेशिकता का बोध होता है [ उसकी विभुता का नहीं ] । यहाँ पर शरीर की प्रादेशिकता का बोध नहीं होता है क्योंकि 'अहम्' के रूप में शरीर का उल्लेख नहीं किया जाता है।
विशेष-'मैं यहाँ पर घर में जाननेवाला हूँ' इस वाक्य में तीन खण्ड हैं। 'मैं' शब्द से आत्मा की प्रतीति होती है, 'घर' से प्रादेशिकता की जो विभुता की उलटी है, 'जाननेवाला' से ज्ञाता की । ये तीनों धर्म एक के ही प्रतीत होते हैं । किन्तु इस वाक्य में वर्णन किसका है ? क्या शरीर का ? नहीं, क्योंकि शरीर न तो आत्मा ही है और न ज्ञाता ही। तो क्या आत्मा का वर्णन है ? वह नहीं, क्योंकि आत्मा वैशेषिकों के अनुसार प्रादेशिक नहीं, विभु है । फल यह होगा कि ऐसे वाक्यों की सिद्धि, व्यवहार में आने पर भी नहीं हो सकेगी।
यदि यह उत्तर दिया जाय कि घर में यद्यपि विभु आत्मा की सम्भावना नहीं हो सकती किन्तु आत्मा का एक भाग तो घर में रह सकता है, इसलिए उस रूप में यह प्रतीति हो सकती है तो इसका भी प्रत्युत्तर होगा कि जब आत्मा के भाग इस तरह होने लगेंगे तो घर में रहनेवाले व्यक्ति को भी 'वन में हैं ऐसी प्रतीति हो सकेगी। इसलिए अध्यास से ही उक्त प्रतीति की सिद्धि करनी चाहिए। ___कुछ लोग फिर कहते हैं कि उक्त प्रतीति तो आहार्य आरोप से भी सिद्ध हो सकती है । बाधज्ञान होने पर भी जो आरोप किया जाता है वह आहार्य आरोप कहलाता है। जैसे-यह आदमी सिंह है । यहां पर आरोप के समय बोधज्ञान है ही कि यह आदमी वास्तव में सिंह नहीं है । प्रस्तुत प्रसंग में आरोप दो प्रकार का सम्भव है-(१) आत्मा के धर्मों का शरीर पर आरोप और ( २) शरीर के धर्मों का आत्मा पर आरोप । अब इन पक्षों का क्रमशः विचार करते हैं।
ननु यथा राज्ञः सर्वप्रयोजनविधातरि भृत्ये 'ममात्मा भद्रसेनः' इत्युपचारः, तद्वदात्मवचनस्याहंशब्दस्य बेह उपचार इति चेत्-मैवं वोचः । अच