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शांकर-दर्शनम्
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है । 'सन्मूला : सौम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठा:' ( छा० ६ १८१४ ) - यहाँ स्थिति और नियमन दोनों का वर्णन है । 'तेजः परस्यां देवतायाम् ' ( छा० ६/८/६ ) में प्रलय का निरूपण है । 'इमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्यनामरूपे व्याकरवाणि' ( छा० ६१३२ ) - इसमें प्रवेश का वर्णन है । इस प्रकार श्रुति में निरूपित सृष्टि आदि क्रियाओं के द्वारा ब्रह्म की प्रशंसा हुई है । ]
मृत्तिका आदि के दृष्टान्त उपपत्ति हैं । [ अद्वितीय वस्तु की सिद्धि के लिए उक्त प्रसंग में मिट्टी का उदाहरण दिया गया है कि केवल मिट्टी का पिण्ड जान लेने से मिट्टी के बने सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । वे विकृत रूप - 1 खिलौना, घड़ा, सुराही आदिकेवल वाणी के खेल हैं | विभिन्न नामों से पुकारे जाने के कारण ये विभिन्न पदार्थ नहीं हैं - सत्य तो केवल मिट्टी है । ठीक उसी प्रकार सारे पदार्थों के नाम और रूप भ्रम हैं, वाणी के विकार हैं— सत्य केवल ब्रह्म है । उसी के अध्यस्त रूप ये पदार्थ हैं । यह युक्ति ही उपपत्ति है | देखिये --' यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।' ( छा० ६ | ११४ ) । इस प्रकार विभिन्न उपनिषदों में छह लिङ्गों का निरूपण हुआ है । इसके स्पष्ट विवरण के लिए वेदान्तसार देखें | ]
इस प्रकार इन लिंगों से यह निश्चय कर लेना चाहिए कि सभी उपनिषदों ( वेदान्तों ) का तात्पर्य नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाववाले ब्रह्म को आत्मरूप में दिखाना है। तो, इस तरह उपनिषदों में प्रतिपादन जो आत्मतत्त्व है वह 'अहम्' के अनुभव में प्रतीत नहीं होता । [ हमारा 'अहम्' का अनुभव आत्मा नहीं है । आत्मा शुद्ध वही है जो उपनिषदों में प्रतिपादित है । ] इसलिए यह सामान्य अनुभव अध्यस्त ( आरोपित ) आत्मा के विषय में है, यह सिद्ध हुआ । [ आत्मत्व का आरोपण देहादि पर होता है । उसी से सम्बद्ध प्रतीति हमें 'अहम्' के रूप में होती है, शुद्ध आत्मा की नहीं । यह आरोपण भ्रममूलक है । जैसे चांदी के रूप में सीपी प्रतीत ( अवभासित ) होती है, उसी तरह आत्मा के रूप में देह प्रतीत होती है । कुछ लोग कह सकते हैं कि 'अहम्' के अनुभव में निविशेष ब्रह्म का अवभास भले ही न हो किन्तु जीवात्मा की प्रतीति तो होती होगी । वैशेषिक दर्शन में ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा स्वीकृत भी है जो प्रत्येक शरीर के लिए भिन्न-भिन्न है और विशेषणयुक्त है । इसलिए 'अहम्' का अनुभव आरोपित आत्मत्व से युक्त देहादि के विषय में होता है । परन्तु यह कहना युक्ति-युक्त इसलिए नहीं है कि ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा के लिए कोई प्रमाण ही नहीं । ]
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( ६. आत्मा का अभ्यास - वैशेषिक-मत की परीक्षा ) कणभक्षाक्षचरणादिकक्षीकृतस्यात्मनो भानाभावादहमनुभवस्याध्यस्तात्मविषयत्वमेषितव्यम् । न तावदहमनुभवः सर्वगतत्वमात्मनोऽवगमयितु