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सर्वदर्शनसंग्रहेविशेष- इन छह लिंगों के बल पर शंकराचार्य छान्दोग्योपनिषद् के निर्दिष्ट अंश के प्रकरण को ब्रह्मपरक मानते हैं । यह उदाहरण मात्र है। विशेष विवरण के लिए उक्त उपनिषद् का छठा प्रपाठक देखना अनिवार्य है।
( ५ क. उपक्रम आदि लिंगों के उदाहरण-आत्मा की सिद्धि ) तत्र 'सदेव सौम्येदमग्र आसीत्' (छां० ६।२।१) इत्युपक्रमः। 'ऐतदात्म्यमिदं सर्व तत्सत्यं स आत्मा, तत्त्वमसि श्वेतकेतो' ( छां० ६१८-१६ ) इत्युपसंहारः । तयोर्ब्रह्मविषयत्वेन ऐकरूप्यमेकलिङ्गम् । असकृत् 'तत्त्वमसि' (छां० ६१८-१६ ) इत्युक्तिरभ्यासः मानान्तरागम्यत्वमपूर्वत्वम् । एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं फलम् । ___उनमें 'हे सौम्य ! सबसे पहले यह सत् ही था' ( छां० ६।२।१ ) यह उपक्रम है [ चूंकि छांदोग्योपनिषद् के षष्ठ प्रपाठक में प्रकरण के आदि में ही है तथा निरुपाधिक केवल सत् के रूप में विद्यमान, अद्वितीय ब्रह्म का प्रतिपादन करता है । ] 'यह सब कुछ उसके रूप में ही हैं, वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वह तुम ही हो' ( छां० ६।८-१६ तक प्रत्येक खण्ड के अन्त में नौ बार )-यह उपसंहार है। ये दोनों लिंग ब्रह्म के विषय में होने के कारण एक रूप-एक ही प्रकार के लिंग हैं । 'वह तुम हो हो' ऐसा अनेक बार कहना अभ्यास है। [ छठे अध्याय या प्रपाठक में इसे नौ बार कहा गया है । प्रत्येक खण्ड का उपसंहार करते हुए 'तत्त्वमसि' कहा गया है। ]
दूसरे प्रमाण से अज्ञेय होना अपूर्वता है । [ अद्वितीय आत्मा को दूसरे प्रमाणों से भी जान सकते हैं । परन्तु उसका प्रदर्शन नहीं हुआ । 'मैं उस औपनिषद पुरुष को पूछता हूँ' (वृ० ३।९।२६ ) इत्यादि वाक्य इसकी पुष्टि करते हैं कि उस पुरुष का ज्ञान उपनिषद् के अतिरिक्त किसी भी दूसरे साधन से नहीं हो सकता । ] उसी प्रसंग में, एक के जानने से सबों का ज्ञान होता है, ऐसा कहा गया है [ जैसे येनाश्रुतं श्रुतं भवति ( छां० ६।१।३ ) तथा आगे भो । ] यही फल है।
सृष्टिस्थितिप्रलयप्रवेशनियमनानि पञ्चार्थवादाः। मृदादिदृष्टान्ता उपपत्तयः । तस्मादेतैलिङ्गर्वेदान्तानां नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावब्रह्मात्मपरत्वं निश्चेतव्यम् । तदित्थमोपनिषदस्यात्मतत्त्वस्याहमनुभवेऽनवभासमानत्वात्तस्यानुभवस्याध्यस्तात्मविषयत्वं सिद्धम् ।
gree ( Creation ), ferfat ( Sustention ), tasu ( Dissolution ), staat ( Entrance ) तथा नियमन ( Control )-ये [ ब्रह्म के विषय में दिये गये ] पाँच अर्थवाद हैं । । यद्यपि ब्रह्म सत्, निष्कल आदि है किन्तु सगुण का आरोप करके उसकी कतिपय शक्तियों की प्रशंसा उपनिषदों में हुई है। वह अर्थवाद है। तदेक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ततेजो सृजत' ( छां० २।३ ) में अद्वितीय ब्रह्म से सृष्टि का वर्णन किया गया