________________
शांकर-वर्शनम्
सम्भावना के द्वारा 'सोऽहम्' प्रत्यभिज्ञा हो ही सकती है । अतः 'सोऽहम्' की सिद्धि के लिए देह और आत्मा में भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है । जीवात्मा ( देहरूपी भी ) स्वाभाविक गति से परमात्मा बन जाती है यदि कारण वर्तमान हों-भेदज्ञान की कहीं अपेक्षा नहीं है।]
न द्वितीयः। व्यवहारसमये पामरसाम्यानतिकात् । अपरोक्षभ्रमस्य परोक्षज्ञानविनाश्यत्वानुपपत्तेश्च । यदुक्तं भगवता मायकारेण-'पश्वादिभिश्चाविशेषात्'-(ब० सू० १।१।१ भा० ) इति पामतीकारैरप्युक्तंशास्त्रचिन्तकाः स्वल्वेवं विचारयन्ति, न प्रतिपत्तीरोइति । तथा चात्मगोचरस्याध्यासात्मरूपत्वं सुस्थम् । ___ विद्वानों को भी वह प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती क्योंकि व्यवहार के समय विद्वान् भी मों की तरह ही [ सामान्य धर्म से युक्त रहते हैं। विद्वान् श्रवण और मनन में कुशल हैं. किन्तु जिन्होंने आत्मतत्त्व का साक्षात्कार नहीं किया है वे आगम और उपपत्ति के द्वारा जीवात्मा को देह, इन्द्रिय आदि से भिन्न समझ लेते हैं । किन्तु जहाँ तक प्रमाण और प्रमेय के प्रयोग का प्रश्न है वे सामान्य जीवों की तरह हैं । जैसे देह को आत्मा के रूप में समझकर अहंभाव से युक्त होकर दूसरे प्राणी व्यवहार करते हैं वैसे ही वे भी करते हैं। यदि प्रत्यभिज्ञा की सत्ता मानें तो दूसरे लोगों की तरह उनका व्यवहार नहीं रह पायेगा । दूसरी ओर जिन परीक्षकों ने तत्त्व का साक्षात्कार भी कर लिया है उनमें तो ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुटी ही नहीं है-टस पर आधारित भेदसिद्धि तो दूसरे की बात है।]
दूसरी बात यह है कि अपरोक्ष ( प्रत्यक्ष ) में होनेवाला भ्रम परोक्ष-ज्ञान से नष्ट नहीं हो सकता। [ रस्सी में किसी को सांप का भ्रम प्रत्यक्ष रूप से हो रहा है। यदि उसे कहें कि इस स्थान पर सांपों का होना सम्भव नहीं है, तो परोक्षज्ञान से सम्बद्ध इस वाक्य से भ्रम की निवृत्ति नहीं हो सकती। आप्तवाक्य से भ्रम का ज्ञान हो सकता है, पर निवृत्ति नहीं । निवृत्ति तो 'यह सांप है' इस प्रत्यक्ष अनुभव से ही सम्भव है। उसी तरह हमें भ्रम देह आत्मा को लेकर है, उसकी निवृत्ति के लिए 'सोऽहम्' की प्रत्यभिज्ञा दे रहे हैं जो परोक्षज्ञान है । तो भ्रम की निवृत्ति कैसे हो सकती है। ]
इसीलिए भगवान् भाष्यकार ( शंकराचार्य ) ने कहा है-'[ शास्त्रचिन्तक होने पर भी ब्रह्म का साक्षात्कार बिना हुए विद्वान् व्यवहार-दशा में ] पशुओं से भिन्न नहीं हैं।' [ शंकराचार्य ने भाष्य के आरम्भ में ही अध्यास का निरूपण करते समय इसका निरूपण किया है । व्यावहारिक दशा में पशु और शास्त्रज्ञ के व्यवहार में कोई अन्तर नहीं। उन्होंने लिखा है कि हाथ में डण्डा उठाये हुए किसी व्यक्ति को देखकर पशु हट जाता है, वही पशु जब किसी के हाथ में हरी घास देखता है तो उसकी ओर प्रवृत्त हो जाता है। वैसे ही शास्त्रज्ञ पुरुष भी अपने शरीर के नाशक, हाथ में शस्त्र लिये बलवान् पुरुष को देखकर