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शांकर-दर्शनम्
- सब कुछ ज्ञान साकार है । ऐसी स्थिति में जीवात्मा का प्रादेशिक होना या स्थूल होनासिद्ध हो जायगा, कोई बात असिद्ध नहीं रहेगी । शरीर के अवयवों के कट जाने से इसके कटने का प्रसंग भी नहीं उठेगा । कारण यह है कि विज्ञान प्रत्येक क्षण में बदलता रहता है । जब जैसा शरीर मिला -- तक तेसा विज्ञान हो गया । ] वह जानना चाहिए कि विज्ञान में विशुद्ध अवयव नहीं रहते । [ शरीर मूर्त परमाणुओं का संघात है जब कि विज्ञान ( आन्तरिक पदार्थ ) स्कन्धों का संघात है । यह काल्पनिक है इसलिए इसके अवयव अलग से सिद्ध नहीं हैं । विशुद्ध का अभिप्राय है दूसरे अवयवों से पृथक् रहकर उत्पन्न होना । अब बतलायेंगे कि विज्ञानवादियों के मत में भी 'अहम् ' प्रतीति मुख्य नहीं है । ]
'जो सोया था, वही मैं जाग रहा हूँ' इस वाक्य में 'अहम्' का उल्लेख स्थिर भाव ( Entity ) के रूप में हो रहा है। दूसरी ओर विज्ञान क्षणभर में ही नष्ट हो जानेवाला है | इसलिए मिथ्या अध्यास तो उसमें अवस्थित मानना पड़ेगा ही । यह अध्यास एक वस्तु में दूसरी वस्तु के बोध के रूप में है । [ अस्थिर विज्ञान में स्थिर आत्मा की प्राप्ति के कारण अध्यास अनिवार्य है । ]
तदनेन कृशोऽहं कृष्णोऽहमित्यादीनां प्रख्यानानां बुद्धया सरूपताख्यानेनौपचारिकत्वं प्रत्याख्यातम् । तद्व्यापकभेदभानासम्भवस्य प्रागेव प्रपश्वितत्वात् । तथा च प्रयोगः - विमतं शास्त्रं विषयप्रयोजनसहितम्, आविद्यकबन्धनिवर्तकत्वात्सुप्तोत्थितबोधवत् ।
तो, इसी के द्वारा, 'मैं पतला हूँ', 'मैं काला हूँ' आदि प्रतीतियों को जो बुद्धि के सरूप कहने से औपचारिक मानते हैं - वह भी खण्डित हो गया । [ स्मरणीय है कि विज्ञानवादी विज्ञान के अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं मानते । बुद्धि ही ग्राह्य और ग्राहक के आकार में होकर अपने सरूप आकारवाले घट आदि बाह्य पदार्थों की कल्पना अपने से भिन्नरूप में करती है । इसमें 'मैं स्थूल हूँ' आदि प्रतीतियों में 'अहम्' की प्रतीति औपचारिक है । परन्तु इस तर्क से उसका भी खण्डन हो गया । क्योंकि ] हम पहले ही इसे स्पष्ट कर आये हैं कि उस ( औपचारिकता ) का व्यापक भेदज्ञान होना सम्भव नहीं है । इसी दर्शन में इसी प्रसंग में अभी-अभी कहा गया है कि औपचारिक होने में लिए भेदज्ञान अनिवार्य है । परन्तु ये विज्ञानवादी बौद्ध यहाँ पर भेदज्ञान स्वीकार करेंगे ही नहीं, क्योंकि वे विज्ञान के अतिरिक्त किसी भी वास्तविक पदार्थ की सत्ता नहीं मानते । ]
[ अभी तक यह सिद्ध कर रहे थे कि 'अहम्' की प्रतीति आत्मा के अध्यास का विषय है । अब यह बतलाते हैं कि उक्त अध्यास की निवृत्ति करनेवाले तथा आत्मा जैसा सन्दिग्ध विषय होने के कारण वेदान्तशास्त्र का आरम्भ करें । उसी के लिए अनुमान दे रहे हैं । ] अनुमान ऐसा है
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