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शकर-दर्शनम्
भी आकाश की तरह उसमें मोह की सम्भावना होती ही है । आत्मा मिथ्याज्ञान से रहित होने पर मोह से ग्रस्त नहीं होती । इसे ही कहते हैं ।] जिस प्रकार यदृच्छा से आकाश पर [ रूपादि का अभ्यास करते हैं परन्तु वास्तव में वह ऐसा नहीं । ] विपर्यय के नष्ट हो जाने पर आत्मा में मोह नहीं होता ।'
इसके बाद [ पूर्वपक्षी ने जो आत्मा की अजिज्ञास्यता सिद्ध करने के लिए ] 'क्योंकि सन्दिग्ध नहीं है' यह हेतु दिया था वह भी असिद्ध है, यह सिद्ध हुआ ।
( ८. आत्मा के विषय में सन्देह )
यद्यपि सर्वः प्राणी प्रत्यगात्मास्तित्वं प्रत्येत्यहस्मीति । न हि कश्चिदपि नाहमस्मीति विप्रतिपद्यते । प्रत्यगात्मैव ब्रह्म 'तत्त्वमसि' ( छा० ६८७ ) इति सामानाधिकरण्यात् । तस्मादात्मतत्त्वमसन्दिग्धं सिद्धम् । तथापि धर्मं प्रति विप्रतिपन्ना बहुविधा इति न्यायेन विशेषप्रतिपत्तिरुपपद्यत एव ।
यद्यपि सभी प्राणी जीवात्मा के अस्तित्व की प्रतीति करते हैं कि मैं हूँ । किसी को भी इस तरह की विप्रतिपत्ति नहीं होगी कि मैं नहीं हूँ । जीवात्मा हो ब्रह्म है क्योंकि 'वह तुम हो' ( छा० ६८७ ) इस वाक्य में दोनों को समानाधिकरण दिखलाया गया है । इसलिए आत्मतत्त्व बिल्कुल असन्दिग्ध है -- यह सिद्ध हुआ ।
फिर भी यह नियम है कि किसी वस्तु के धर्म को लेकर बहुत तरह के विवाद चलते रहते हैं । इस नियम से तो विशेष की प्रतिपत्ति ( प्रतिपादन ) हमें करनी ही है । विशेष -आत्मा धर्मी है जिसके धर्म के विषय में नाना प्रकार के विवाद हैं । अब यहाँ पर आत्मा के विषय में विभिन्न दार्शनिकों के विचारों का संग्रह किया जा रहा है ।
तथा हि- चैतन्यविशिष्टं देहमात्मेति लोकायता मन्यन्ते । इन्द्रियाण्यात्मेत्यन्ते । अन्तःकरणमात्मेत्यपरे । क्षणभङ्गुरं सन्तन्यमानं विज्ञानमात्मेति बौद्धा बुध्यन्ते । देहपरिमाण आत्मेति जैना जिनाः प्रतिजानते । कर्तृत्वादिविशिष्टः परमेश्वराद्धिन्नो जीवात्मेति नैयायिकादयो वर्णयन्ति । द्रव्यबोधस्वभावमात्मेत्याचार्याः परिचक्षते ।
a [ विवाद ] इस प्रकार हैं- लोकायत ( चार्वाक ) मतवाले मानते हैं कि चैतन्य से युक्त देह ही आत्मा है । इनमें ही कुछ लोग इन्द्रियों को और कुछ लोग मन ( अन्तःकरण ) को आत्मा मानते हैं । सन्तान ( Series ) से युक्त और क्षणभंगुर विज्ञान ही आत्मा है, बौद्धों का बोध इस तरह का है। जिन ( विजयी ) जैनों की प्रतिज्ञा ( Proposition ) है कि देह का परिमाण ( Dimension ) ही आत्मा है । नैयायिक आदि वर्णन करते हैं कि जीवात्मा परमेश्वर से भिन्न है तथा कर्तृत्व आदि से युक्त है ।
आचार्य (कुमारिलभट्ट ) कहते हैं कि द्रव्य का स्वभाव ( अज्ञान स्वरूप ) और बोध का स्वभाव ( ज्ञान-स्वरूप ) आत्मा है [ उनका यह कहना है कि 'आत्मानन्दमयः' ( तै०