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सर्वसनसंचहेहै-उनसे यह पूछे कि यदि उन दोनों में अभेद की योग्यता है तो वे अभिन्न होंगे - एक का लय दूसरे में होगा, जैसे, जल में नमक का लय होता है । अब कहें कि किसमें किसका लय होता है ? आत्मा में अनात्मा का या अनात्मा में आत्मा का ? दूसरे शब्दों में, केवल आत्मा ही अवशिष्ट रहती है या अनात्मा ? ] यदि आत्मा ही अवशिष्ट रहती है तो जैसी बात मुक्ति की दशा में होती है उसी तरह यह दृश्यमान जगत् समाप्त हो जायगा । [ मुक्ति की दशा में केवल आत्मा ही बचती है, संसार की निवृत्ति हो जाती है । यही दशा सदा रहती। ] यदि अनात्मा ही अवशिष्ट रहती है तो समूचा संसार [ जड़ हो जाने के कारण ] अन्धा हो जायगा। ___ तमःप्रकाशवद्विरुखस्वभावत्वाच्च दृग्दश्ययोरात्मानात्मनोरमेवायोग्यत्वमवधेयम् । ततश्चार्याध्यासानुपपत्तो तत्पूर्वकस्य ज्ञानाध्यासस्यासम्भवेन ब्रह्मणो विचार्यत्वासम्मवाद्विचारात्मिका चतुर्लक्षणशारीरकमीमांसा नारम्भणीयेति पूर्वपले प्राप्ते सिद्धान्तोऽभिधीयते-।
[ उपर्युक्त विकल्पों को न सहने के अतिरिक्त ] अन्धकार और प्रकाश की तरह परस्पर विरुद्ध स्वभाव होने के कारण भी, दृक् और दृश्य में अर्थात आल्मा और अनात्मा में अभेद ( तद्रूपता, होने को अयोग्यता है, यह मानना ही पड़ेगा। ____ इसलिए [ आत्मा पर ] वस्तुओं के अध्यास ( Super imposition ) की सिद्धि नहीं होती। [ आत्मा और जड़ में ताप्य को योग्यता ही नहीं कि एक पर दूसरे का अध्यास हो। ] यही नहीं, उसके आधार पर [ आत्मा में जो प्रपंचविषयक लौकिक ] ज्ञान है उसका अध्यास भी सम्भव नहीं। अतः ब्रह्म विचार के योग्य है ही नहीं। फलतः विचार के रूप में जो चार अध्यायोंवाली शारीरिक-मीमांसा ( ब्रह्मसूत्र ) बनायी गई है, उसका आरम्भ नहीं करनी चाहिए।
इस पूर्वपक्ष के आने पर अब हम सिद्धान्त का वर्णन करते हैं।
विशेष-अधिकरण में तीसरा अंग पूर्वपक्ष होता है । ब्रह्मजिज्ञासा-अधिकरण ( प्रथम सूत्र ) का पूर्वपक्ष बहुत दूर तक निरूपित हुवा । इसमें दो मुख्य बातें थीं-ब्रह्मजिज्ञासा के लिए सन्देह का अभाव और उसके लिए प्रयोजन का अभाव । दोनों पक्षों पर वादीप्रतिवादी के तर्कों का उत्थापन करते हुए विचार किया गया है। इस प्रसंग में वेदान्त के दृष्टिकोण पर भी काफी प्रकाश पड़ता है। अब उत्तरपक्ष का विचार करते हैं कि ब्रह्मजिज्ञासा का आरम्भ करना चाहिए।
(५. ब्रह्मा-जिज्ञासा का पारम्भ सम्भव-उत्तरपक्ष) अहंपदाधिगम्यावन्यदात्मतत्त्वं नास्तीति न वक्तव्यम् । निरस्तसमस्तोपाधिकस्यात्मतत्वस्य श्रुत्यादिषु प्रसिद्धत्वात् । न च तेषामुपचरितार्थता ।