________________
६५२
सर्वदर्शनसंग्रहे
[ आत्मजिज्ञासा के लिए 'संसार को निवृत्ति' को प्रयोजन के रूप में रखना [ ठीक वैसा ही है जैसे डूबनेवाला आदमी काश या कुश के पौधे को पकड़कर बचना चाहे । आत्मा के यथार्थ अनुभव के साथ यह संसार चलता । [ प्राणी को आत्मा का ज्ञान संसार में रहकर ही होता है जैसे उसे आन्तर सुख आदि का ज्ञान होता है । ] जैसे रूप-रस आदि का बोध [ इसी संसार में रहकर होता है वैसे ही आत्मा का यथार्थ ज्ञान भी यहीं से होगा । दोनों के बीच ] कोई विरोध नहीं है । इसलिए [ संसार और आत्मज्ञान के बीच ] निवर्त्य ( संसार ) और निवर्तक ( आत्मज्ञान ) का सम्बन्ध नहीं हो सकता । [ यदि रूपरसादि के ज्ञान से संसार की निवृत्ति नहीं होती तो आत्मज्ञान से भी नहीं होगी — दोनों की ज्ञान - विधि में कोई अन्तर नहीं है । ]
शंका- - मान लिया कि संसार के साथ अनुवर्तित होनेवाला [ = 'अहम्' के रूप ] आत्मज्ञान संसार की निवृत्ति भले ही न करे किन्तु साथ-साथ आवर्तित होनेवाला ( = शुद्ध अद्वितीय आत्मा के स्वरूप का ) ज्ञान तो संसार की निवृत्ति कर सकेगा जैसे प्रकाश अन्धकार को हटा देता है ? उत्तर - यह तर्क बिल्कुल खोखला है । 'अहम्' के अनुभव के अतिरिक्त किसी आत्मा का ज्ञान होना चूहे की सींग की तरह ही असम्भव है ।
नन्वन्योऽयमनुभवः पामराणां मा स्म भवन्नाम | वेदान्तवचननिचयपर्यालोचनक्षमाणां परीक्षकाणां सम्भवत्येवेत्यपि न वक्तव्यम् । अबाधितानुभवविरोधेन वेदान्तवाक्यानां ग्रावप्लवनादिवाक्यकल्पत्वात् । न ह्यागमाः परः शतं घटं पटयितुमुत्सहन्ते ।
इस पर आप लोग ( वेदान्ती ) कह सकते हैं कि [ 'अहम्' के सामान्य अनुभव से ] यह अनुभव भिन्न है [ तथा 'सदेव सौम्येदमग्र आसीत्' ( छा० ६।२।१ ) इत्यादि श्रुतिवाक्यों से शुद्ध अद्वितीय आत्मा के स्वरूप का अनुभव होता है । ] यह अनुभव मूर्खों को भले ही न हो किन्तु जो परीक्षक ( बुद्धिमान पुरुष ) वेदान्त के वाक्यों की पर्यालोचना में समर्थ हैं उन्हें तो हो सकता है । किन्तु हम कहेंगे कि ऐसा भी कहना नहीं चाहिए । हमारा अनुभव [ कि अहम और इदम् में पार्थक्य है यह ] अबाधित है ( प्रमाण है ), उसका विरोध करने के कारण वेदान्त के वाक्य भी 'पत्थर तैरते हैं' इस वाक्य की तरह [ अप्रामाणिक है। हमारा अनुभव कहता है कि आत्मा और जड़ दो पदार्थ हैं । दूसरी ओर इस अनुभव का विरोध 'सदेव सौम्य ० ' आदि से होता है जिसमें एक तत्त्व --- अद्वितीय आत्मा का ही प्रतिपादन है । जो वाक्य हमारे अनुभव के विरुद्ध है वह प्रमाण नहीं है । आप लोग आगमों की अचिन्त्य शक्ति में विश्वास रखते हैं किन्तु ] सौ से ऊपर आगम मिलकर भी किसी साधारण घट को पट के रूप में परिणत नहीं कर सकते ।
न चाध्ययनविधिव्याकोपः । गुरुमतानुसारेण हुंफडादिवाक्यवत् जपमात्रोपयोगित्वेनाचार्यमतानुसारेण वा 'यजमानः प्रस्तरः' ( तै० ब्रा०