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सर्वदर्शनसंग्रहे
अधिकरण
अध्याय तृतीय
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५५६ ब्रह्मसूत्र (( वेदान्तसूत्र ) पर विभिन्न दार्शनिकों ने टीका करके अपने विशिष्ट मार्गों का' प्रवर्तन किया है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत तथा पूर्णप्रज्ञ का द्वैत हम देख ही चुके हैं। फिर भी शंकराचार्य के भाष्य के समक्ष कोई भी समीचीन नहीं लगता । विभिन्न भाष्यकारों में मतभेद होने के कारण बादरायण का मूल अभिप्राय क्या था, यह कहना कठिन हो गया है। यहां पर विषयारम्भ के पूर्व शांकर-दर्शन का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करना असंगत नहीं होगा।
जैसा कि स्वाभाविक है, हम वेदों से ही भारतीय वाङ्मय की उत्पत्ति मानते हैं। वेदान्त के विषय में भी वही बात है। ऋग्वेद के सूक्तों में ही माया और ब्रह्म के सम्बन्ध की सचनाएं मिलती हैं। फिर भी वास्तविक वेदान्त वेद के अन्तिम भाग-उपनिषदों-से शुरू होता है, जहाँ जीव और ब्रह्म के विषय में विशिष्ट कल्पनाएं की गयी हैं । संख्या में अनेक होने पर भी शंकराचार्य ने केवल ग्यारह उपनिषदों को मान्यता दी है। वेदान्त से उपनिषदों का ही बोध मुख्य रूप से होता है, उपनिषदों का सारांश भगवद्गीता में आ गया है। इसलिए उसे भी वेदान्त के अन्तर्गत ही रखते हैं । उपनिषद और गीता में बिखरे हुए विचारों को बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में शृंखलाबद्ध किया। इस प्रकार वेदान्त के तीन प्रस्थान ग्रन्थ कहलाते हैं-उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र । शंकराचार्य ने तीनों पर व्याख्या लिखकर अद्वैतमत का प्रवर्तन किया । . __शंकराचार्य ( ७८८-८२० ई० ) ने ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य लिखा, जिसने अद्वैत वेदान्त की पताका फहरा दी । शंकराचार्य केरल प्रान्त के नम्बूदरी ब्राह्मण थे तथा गौडपाद के शिष्य श्री गोविन्दभगवत्पाद के शिष्य थे। स्मरणीय है कि गौडपाद ने माण्डूक्यकारिका लिखी थो, जो मायावाद का प्रथम शास्त्र ग्रन्थ है । शंकर ने इस पर भी टीका लिखी थी । ३२ वर्षों की अल्प आयु में भी शंकर का यश अक्षुण्ण है। इनका गद्य अपने
१. देखिये-पं० बलदेव उपाध्याय, भारतीय दर्शन, पृ० ४०१ ।