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शांकर-दर्शनम्
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से ही सम्भव है, क्योंकि जब कहते हैं कि 'मैं मोटा हूँ', 'मैं पतला हूँ' तो आत्मा को भी शरीर के धर्मों का आधार बना देते हैं । [ मोटा, पतला होना शरीर के धर्म हैं। शरीर जड़ है, किन्तु उक्त वाक्यों में आत्मा पर जड़ के धर्मो का आरोपण किया गया है - अहम् ( आत्मा के लिए सर्वनाम ) और स्थूल: ( देह के लिए विशेषण ) दोनों को समानाधिकरण बनाकर चेतन पर जड़ के धर्मों का आरोपण हुआ है । इसलिए देह से अतिरिक्त आत्मा नाम की कोई वस्तु अनुभव - पथ में नहीं आती । यही कारण है कि आत्मा की जिज्ञासा करनी चाहिए, जिससे आत्मा और देह का भेद स्पष्ट हो । इस शंका के उत्तर में पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] उक्त शंका ठीक नहीं । [ यदि शरीर और आत्मा में भेद नहीं होता ] नं. बाल्य, युवा आदि अवस्थाओं में शरीर का परिमाण भिन्न-भिन्न रहता है । इसलिए जे बेर और आंवले में परस्पर भेद होता है, उसी तरह शरीर की [ विभिन्न अवस्थाओं में परस्पर भेद होने के कारण 'मैंने युवावस्था में सुख भोगा', 'बचपन में मैं खेलता था ' आदि की ] प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकेगी । [ इन अवस्थाओं में शरीर एक ही नहीं रहतायह तो स्पष्ट है । साथ-साथ यह भी स्पष्ट है कि सभी अवस्थाओं में अनुभवकर्ता एक ही रहता है । अतः देह ( ' बदलनेवाली ) और आत्मा ( न बदलनेवाली ) दोनों में भेद तो है ही । चूंकि भेद स्पष्ट है, अतः आत्मा की जिज्ञासा व्यर्थ है । ]
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अथोच्यते - यथा पीलुपाकपक्षे पिठरपाकपक्षे वा कालभेदेनंकस्मिन् वस्तुनि पाकजभेदो युज्यते तथैकस्मिञ्शरीरामिधे वस्तुनि कालभेदेन परिमाणभेदः । अत एव लौकिकाः शरीरमात्मनः सकाशादभिन्नं प्रतिपद्यमानाः प्रत्यभिजानते चेति । न तद्भद्रम् । मणिमन्त्रौषधाद्युपायभेदेन भूमिकाधानवत् नानाविधान्देहान् प्रतिपद्यमानस्याहमालम्बनस्य भिन्नस्यात्मनः शरीराद्भेदेन भासमानत्वात् ।
[ पूर्वपक्षियों को अभी भी खटका लगा ही है । वे सोचते हैं कि उक्त शंका की सफाई भी दे दी जा सकती 1] अब वे ( पूर्वपक्षियों पर शंका करनेवाले लोग ) कह सकते हैं कि जैसे पीलुपाक-पक्ष ( परमाणु की उत्पत्ति या नाश-वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत ) में या पिठरपाक-पक्ष ( पूरे पिण्ड की उत्पत्ति या नाश - न्यायदर्शन में स्वीकृत ) में काल का भेद होने से एक ही वस्तु में पाकज ( तेज या अग्नि से उत्पन्न ) भेद हो सकता है ( देखिये, औलूक्य - दर्शन ), उसी प्रकार शरीर नामक वस्तु में, जो एक ही है, समय के भेद के कारण परिमाण का भेद हो सकता है । [ परिमाणगत भेद का स्पष्टीकरण इसलिए किया गया कि परिमाण में भेद होने पर भी देह को एक ही समझा जाय -- इसलिए देह ही 'अहम् ' प्रतीति का विषय है। जड़ और चेतन में समानाधिकरणता है ही, अतः आत्मा की जिज्ञासा करनी चाहिए कि भेद स्पष्ट हो । ] इसलिए तो लोकायत-मत ( चार्वाक ) के लोग शरीर को आत्मा से पृथक् नहीं समझते और [ विभिन्न अवस्थाओं में पृथक परिमाण से युक्त होने पर भी शरीर का ] प्रत्यभिज्ञा से एक हो जानते हैं ।