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सर्वदर्शनसंग्रहे
हमारा ( पूर्वपक्षियों का ) कहना है कि यह ठीक नहीं । मणि, मन्त्र, औषधि आदि उपायों का प्रयोग करके [ जैसे कोई व्यक्ति कभी हाथी, कभी बाघ, कभी राक्षस और कभी मनुष्य बनकर ] विभिन्न भूमिकाओं ( Role ) का ग्रहण करता है, वैसे ही नाना प्रकार के शरीरों में जा-जाकर 'अहम्' शब्द पर अवलम्बित ( Dependent, attached to ) आत्मा जो भिन्न ( शरीर से ) है, वह शरीर से भिन्न रूप में प्रतीत होती है । [ चूंकि आत्मा शरीर से भिन्न लगती है, अतः ब्रह्म की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए । ]
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विशेष - आत्मा की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए, यह पूर्वपक्ष बहुत दूर तक जा रहा हैं | इसके दो खण्ड हैं। एक में तो सन्देह की असम्भावना दिखाकर अपने प्रतिपाद्य का निरूपण करते हैं, दूसरे में प्रयोजन की असम्भावना दिखायेंगे । सन्देह ही असम्भावना दिखाने में पूर्वपक्षी भी विरोधी दल से भिड़ा हुआ है । पूर्वपक्षी शरीर और आत्मा को स्पष्ट रूप से पृथक् मानकर सन्देह का अवसर ही नहीं रहने देता जबकि इसके विरोधी दोनों में अभेद के प्रदर्शन में लगे हैं कि स्पष्टीकरण के लिए आत्मा की जिज्ञासा होनी ही चाहिए, नहीं तो जड़ और चेतन की पारस्परिक संसृष्टि ( Mixture ) से सन्देह बना ही रहेगा ।
अब पूर्वपक्षी अपने पक्ष की पुष्टि में आत्मा और शरीर का भेद और अधिक स्पष्ट करता है ।
अतएव चक्षुरादीनामप्यहमालम्बनत्वमश यशङ्कम् । 'नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यः' ( न्या० कुसु० १।१५ ) इति न्यायेन चक्षुरादौ नष्टेऽपि रूपादिप्रतिसन्धानानुपपत्तेः । नाप्यन्तःकरणस्याहमालम्बनत्वमास्थेयम् । अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा यद्विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्चेति न्यायेन कर्तृकरणभूतयोरात्मान्तःकरणयोस्तक्षवासिवत्सम्भेदासम्भवात् ।
इसीलिए ( अर्थात् से शरीर जैसे आत्मा भिन्न है उसी तरह इन्द्रियों से आत्मा के भिन्न होने के कारण ) चक्षु आदि इन्द्रियों में 'अहम्' की प्रतीति होती है - ऐसी शंका भी नहीं की जा सकती । यह नियम है कि एक आदमी के देखे पदार्थ का स्मरण दूसरा आदमी नहीं कर सकता ( न्या० कु० १।१५ ), इसलिए चक्षु आदि इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी रूपादि विषयों का अनुचिन्तन ( नष्ट द्रव्य को प्राप्त करने के लिए व्यापार = प्रतिसन्धान ) करना सम्भव नहीं है |
इसके अतिरिक्त अन्तःकरण ( मन ) को भी 'अहम्' का आधार नहीं मानना चाहिए । जो विरुद्ध धर्मो का अव्यास ( आरोपण ) है वही भेद है और जो कारणों का भेद है वही भेद हेतु होता है - इस नियम से कर्ता और करण के रूप में जो क्रमशः आत्मा और अन्त:करण है उन दोनों में तादात्म्य ( Identity सम्भेद ) होना उसी प्रकार असम्भव है जिस