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सर्वदर्शनसंग्रहे-. वह वेदानशास्त्र चार अध्यायों में है । [ प्रत्येक अध्याय का एक-एक प्रतिपाद्य विषय या लक्षण होने के कारण इसे चतुर्लक्षणी कहते हैं । ] शंकराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि भगवान् बादरायण के द्वारा रचित इस वेदान्त-शास्त्र का विषय प्रत्यक् ( जीवात्मा )
और ब्रह्म की एकता का प्रदर्शन करना है । प्रथम अध्याय को समन्वयाध्याय कहते हैं जिसमें सिद्ध किया गया है कि सारे वेदान्त ( उपनिषद् ) वाक्यों का तात्पर्य ब्रह्म में ही समीहित है। द्वितीय अध्याय अविरोधाध्याय कहलाता है जिसमें सांख्य आदि दर्शनों के तर्को से उत्पन्न विरोध का निराकरण किया गया है। तृतीय अध्याय साधनाध्याय है जिसमें ब्रह्मविद्या की सिद्धि की गई है । चतुर्थ अध्याय को फलाध्याय कहते हैं जिसमें ब्रह्मविद्या का फल निर्दिष्ट है।
तत्र प्रत्यध्यायं पादचतुष्टयम् । तत्र प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे पादे स्पष्टब्रह्मलिङ्गं वाक्यजातं मीमांस्यते । द्वितीयेऽस्पष्टब्रह्मलिङ्गमुपास्यविषयम् । तृतीये तादृशं ज्ञेयविषयम् । चतुर्थेऽव्यक्ताजापदादि सन्दिग्धं पदजातमिति । ___ अविरोधस्य द्वितीयस्य प्रथमे सांख्ययोगकणादादिस्मृतिविरोधपरिहारः। द्वितीये सांख्यादिमतानां दुष्टत्वम् । तृतीये पञ्चमहाभूतश्रुतीनां जीवश्रुतीनां च परस्परविरोधपरिहारः । चतुर्थे लिङ्गशरीरश्रुतीनां विरोधपरिहारः।
उनमें प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं। प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में स्पष्ट रूप से ( प्रत्यक्षतः ) ब्रह्म को बतलानेवाले वाक्यों की मीमांसा हुई है । द्वितीय पाद से ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले उपासना-विषयक वाक्यों की मीमांसा है । तृतीय पाद में उसी तरह के ( ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले ज्ञेय-विषयक वाक्यों की [ समीक्षा है ] और चतुर्थ पाद में 'अव्यक्त' 'अजा' आदि सन्दिग्ध शब्दों की समीक्षा हुई है। [ एक श्रुति है'महत: परमव्यक्तम्' ( का० १।३।११)। दूसरी है-'अजामेकाम्' (श्वे४.५)। इनमें अव्यक्त, अजा आदि शब्द सन्दिग्ध हैं कि सांख्य-दर्शन की प्रकृति का प्रतिपादन तो ये शब्द नहीं करते हैं ? ] - अविरोध का निर्देश करनेवाले द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में सांख्य, योग और वैशेषिक आदि स्मृतियों ( दर्शनों ) के द्वारा किये जानेवाले विरोध का परिहार किया गया है । द्वितीय पाद में सांख्यादि दर्शनों के मतों की दोषात्मकता दिखलाई गई है । तृतीय पाद में पांच महाभूतों का वर्णन करनेवाली श्रुतियों और जीव-विषयक श्रुतिवाक्यों के परस्पर विरोध का निवारण किया गया है । चतुर्थ पाद में लिङ्गशरीर का वर्णन करनेवाली श्रुतियों के विरोध का परिहार किया गया है। [लिङ्गशरीर = पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियाँ, 'पाँच प्राण ( वायु ), मन तथा बुद्धि-इन सत्रह पदार्थों का संघात लिङ्गशरीर कहनाता है।