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शांकर दर्शनम्
जागृतावस्था में भी हो सकता है, यदि भावना बहुत प्रबल हो जाय । स्पष्ट है कि काम का ही विवर्त कान्तालिंगन है । किन्तु काम-वृत्ति स्वयं तो नीरूप है—अतः रूपरहित का भी विवर्त होता है । आकाश रूपरहित है पर नीलापन आदि का भ्रम होता है । उसी तरह जीव और संसार की बात है । किसी तरह का साम्य दिखाकर तो समरूपता दिखाई जा सकती है । वास्तव में यह प्रश्न मनोविज्ञान का है। दो प्रकार की मिथ्या प्रतीति होती है - साधार और निराधार । साधार मिथ्या प्रतीति-भ्रम ( Illusion ) है जिसमें किसी वस्तु की एक अवस्था दूसरी अवस्था के रूप में या सीपी चांदी के रूप में जो दिखाई पड़ती है वह भ्रम है। यहां रस्सी या सीपी का सत्ता है जो सारूप्य तथा मानसिक क्रियाओं के कारण बदली दिखाई पड़ती है । निराधार मिथ्या प्रतीति विभ्रम ( Hallucination ) है जिसमें किसी भी बाहरी वस्तु की सत्ता न होने पर भी केवल मानसिक क्रियाओं ( भावना ) के कारण किसी वस्तु की प्रतीति हो जाती है । कभी-कभी अपने कमरे में जगी अवस्था में भी हमें किसी व्यक्ति को उपस्थिति का ज्ञान हो जाता है। स्वप्न देखना, भूत-प्रेत देखना आदि ऐसी हो क्रियायें हैं । जहाँ तक भ्रम का सम्बन्ध है समरूपता होती है, किन्तु विभ्रम के लिए समरूपता नहीं, भावना चाहिए । ]
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दूसरी बात यह है कि कभी-कभी होनेवाले विभ्रम में समरूपता की आवश्यकता भले ही पड़े, अनादि काल से चली आनेवाली अविद्या पर निर्भर करनेवाले प्रपञ्च ( संसार ) के विषय में हमें ऐसे ( सारूप्य ) की कोई आवश्यकता ही नहीं ।
तदवोचदाचार्यवाचस्पतिः -
१. विवर्तस्तु प्रपत्रोऽयं ब्रह्मणोऽपरिणामिनः । अनादिवासनोभूतो न सारूप्यमपेक्षते ।। इति । तदेतत्सर्व वेदान्तशास्त्रपरिश्रमशालिनां सुगमं सुघटं च ।
इसे आचार्य वाचस्पति मिश्र ने कहा है- 'यह प्रपंच ( संसार ) तो अपरिणामी ब्रह्म का विवर्त है तथा अनादि वासना ( छाप, अविद्या ) से उत्पन्न होने के कारण समरूपता की आवश्यकता ही नहीं है ।' यह सब कुछ वेदान्त - शास्त्र में परिश्रम करनेवाले लोगों के लिए सुगम तथा मान्य है ।
( २. वेदान्त सूत्र की विषय-वस्तु )
तच्च वेदान्तशास्त्रं चतुर्लक्षणम् । भगवता बादरायणेन प्रणीतस्य वेदान्तशास्त्रस्य प्रत्यग्ब्रह्मैक्यं विषय इति शंकराचार्याः प्रत्यपीपदन् । तत्र प्रथमे समन्वयाध्याये सर्वेषां वेदान्तानां ब्रह्मणि तात्पर्येण पर्यवसानम् । द्वितीयेऽविरोधाध्याये सांख्यादितर्कविरोधनिराकरणम् । तृतीये साधनाध्याये ब्रह्म विद्यासाधनम् । चतुर्थे फलाध्याये विद्याफलम् !
४१ स० सं०