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शांकर-दर्शनम्
६३७ उदासीन माना नहीं जा सकता । वास्तव में प्रवृत्ति होना उसका स्वभाव ही है । [ प्रवृत्ति = कार्य के रूप में परिणाम । परिणाम चंचलता से ही होता है। जब पुरुष को मोक्ष प्राप्त हो जायगा तब प्रकृति को उदासीन मानना पड़ेगा; लेकिन प्रकृति किसी भी दशा में उदासीन नहीं हो सकती । फलतः मोक्ष नाम की कोई चीज रहेगी ही नहीं।] ___ ननु सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिः पुरुषार्थः । तस्यां जातायां सा निवर्तते कृतकार्यत्वादिति चेत् तदसमञ्जसम् । अचेतनायाः प्रकृतेविचार्य कार्यकारित्वायोगात्। यथेयं कृतेऽपि शब्दाधुपलम्भे तदथं पुनः प्रवर्तते एवमत्रापि पुनः प्रवर्तेत । स्वभावस्यानपायात् ।।
यहां पर सांख्यवाले कह सकते हैं कि सत्त्व और पुरुष को अलग-अलग रूप में समझना पुरुषार्थ ( पुरुष का लक्ष्य ) है । जब पुरुषार्थ की प्राप्ति या सत्त्व और पुरुष के बीच ] भेदज्ञान हो जाता है तब प्रकृति अपना कार्य समाप्त करके निवृत्त ही हो जायगी । यह सिद्धान्त भी संगत नहीं है । प्रकृति अचेतन है इसलिए विचार करके वह काम नहीं कर सकती [कि निवृत्ति हो जाय और प्रवृत्त हो जाय । ] जिस तरह यह प्रकृति शब्दादि की प्राप्ति कर लेने पर भी शब्दादि के लिए ही पुनः प्रवृत्त होती है, उसी तरह यहाँ भी उसकी पुनः प्रवृत्ति हो सकेगी । अपना स्वभाव तो छूटता नहीं। [ सत्त्व और पुरुष का भेदज्ञान हो जाना प्रकृति के जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रखता । उसके बाद प्रकृति इस तरह निवृत्त होगी कि पुनः कार्य नहीं कर सकेगी, ऐसी कोई बात नहीं। अचेतन प्रकृति अपने काम में लगी है-परिस्थितियों के वश में वह निवृत्त होती है और प्रवृत्त भी होती है। निवृत्त होने के बाद उसको प्रवृत्ति फिर हो सकती है। प्रवृत्ति तो उसका स्वभाव है।]
किं च सा प्रकृतिविवेकख्यातिवशादुच्छिद्यते न वा ? उच्छेदे सर्वस्य सम्प्रति संसारोऽस्तमियात् । अनुच्छेदे न कस्यचिन्मोक्षः।
ननु प्रधानाभेदेऽपि तत्तत्पुरुषविवकख्यातिलक्षणाविद्यासदसत्त्वनिबन्धनौ बन्धमोक्षावुपपद्येयातामिति चेत्-हन्त तर्हि कृतं प्रकृत्या। अविद्यासदसद्भावाभ्यामेव तदुपपत्तेः। ___ इसके अतिरिक्त भी हमारा ( अद्वैत वेदान्तियों का ) एक प्रश्न है कि विवेकज्ञान होने के बाद प्रकृति का नाश होता है या नहीं ? यदि नाश होता है तो सबों का होगा, पूरा संसार ही नष्ट हो जायगा । [ प्रत्येक जीव में अलग-अलग प्रकृति नहीं है। जीवों के लिए एक ही प्रधान है । यदि यह प्रधान नष्ट हो जाता हो तो विवेकज्ञान का प्रश्न ही नहीं उठेगा—सब के साथ जीव मुक्त हो जायेंगे। ] यदि प्रधान का नाश नहीं होता है तो किसी को मोक्ष मिल ही नहीं सकेगा।
[ अब अपने प्रतिपाद्य विषय पर पहुँचने का उपक्रम हो रहा है । वह विषय है प्रकृतितत्त्व का खण्डन करके संसार की व्याख्या करने के लिए अविद्या का प्रतिपादन करना । ये