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सर्वदर्शनसंग्रहदूसरों ने भी कहा है-'उस ( ध्येय ) के रूप के ज्ञान में एक ही तरह से रहनेवाला तथा दूसरे विषयों के व्यवधान से रहित [ ज्ञान का ] प्रवाह ध्यान है । हे राजन् ! वह प्रथम छह अंगों के द्वारा निष्पन्न होता है।' (वि० पु० ६७८९) [ यह वाक्य खाण्डिक्य नामक राजा को कहा गया है।] . ____ अन्तिम अन्ग ( समाधि ) को तो प्रसंगवश हम लोगों ने पहले ही ( 'योगनुशासन' के निर्वचन-क्रम में ) प्रतिपादित कर दिया है ( देखिये, पृष्ठ, ५७४ ) ।
विशेष—यहाँ अष्टांग योग का विवरण समाप्त हो रहा है। अब इन अंगों के प्रयोग से प्राप्त होनेवाली सिद्धियों का वर्णन करके कैवल्य ( मोक्ष ) रूपी परम पुरुषार्थ का निरूपण होगा।
(२४. योग से प्राप्त होनेवाली सिद्धियां ) तदनेन योगाङ्गानुष्ठानेनादरनरन्तर्यदीर्घकालसेवितेन समाधिप्रतिपक्षक्लेशप्रक्षयेऽभ्यासवैराग्यवशान्मधुमत्यादिसिद्धिलाभो भवति । ____ अथ किमेवमकस्मादस्मानतिविकटाभिरत्यन्ताप्रसिद्धाभिः कर्णाटगोडलाटभाषाभि षयते भवान् ? न हि वयं भवन्तं भीषयामहे । कि तु मधुमत्यादिपदार्थव्युत्पादनेन तोषयामः। ततश्चाकुतोभयेन भवता श्रूयतामवधानेन । ___तो, योग के अंगों के इस प्रकार अनुष्ठान से-जिसका सेवन या पालन आदरपूर्वक ( श्रद्धा सहित ), व्यवधानरहित तथा दीर्घकाल तक किया गया हो -समाधि के विरोधी क्लेशों का नाश हो जाने पर; अभ्यास और वैराग्य के बल से मधुमती आदि सिद्धियों का लाभ होता है।
[ इन मधुमती आदि नये शब्दों को सुनकर कोई पूछता है-] हम लोगों को इन विकट ( भयप्रद ) और अत्यन्त अप्रसिद्ध कर्णाटक ( उत्कल का दक्षिण भाग ), गौड़ (बंगाल का पूर्वी भाग ) तथा लाट ( गुजरात का एक भाग ) की भाषा से आप अकस्मात् डराने क्यों लगे ? [ हमारा उत्तर यह है-] हम आपको डरा नहीं हे हैं । बल्कि मधुमती आदि शब्दों के अर्थ की सव्युत्पत्ति ( विश्लेषण ) करके आपको सन्तुष्ट ही कर रहे हैं । सो आप निर्भय होकर ध्यान से सुनें।
(२४ क. मधुमती-सिद्धि ) तत्र मधुमती नामाभ्यासवैराग्यादिवशादपास्तरजस्तमोलेशसुखप्रकाशमयसत्त्वभावनया अनवद्यवैशारद्यविद्योतनरूपऋतम्भरप्रज्ञाख्या समाधिसिद्धिः। तदुक्तम्-'ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा' (पात यो० सू० १६४८)। ऋतं सत्यं बिति कदाचिदपि न विपर्ययेणाच्छाद्यते । तत्र स्थितौ दार्च सति द्वितीयस्य योगिनः सा प्रज्ञा भवतीत्यर्थः ।