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ब्रह्मव सज्जगदिदं तु विवर्तरूपं
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शाङ्कर-दर्शनम्
मायेशशक्तिरखिलं जगदातनोति ।
जीवोsपि माति पृथगत्र तयैव चैको
ताश्रितं खलु नमाम्यथ शङ्करं तम् ॥ - ऋषिः ।
( १. परिणामवाद - खण्डन -- प्रकृति की सिद्धि अनुमान से असम्भव )
सोऽयं परिणामवादः प्रामाणिकगर्हणमर्हति । न ह्यचेतनं प्रधानं चेतनानधिष्ठितं प्रवर्तते । सुवर्णादौ रुचकाद्युपादाने हेमकारादिचेतनाधिष्ठानोपलम्भेन नित्यत्वसाधककृतकत्व वत्सुखदुःखमोहात्मनान्वितत्वादेः साधनस्य साध्यविपर्ययव्याप्ततया विरुद्धत्वात् ।
[ सांख्य योग दर्शनों में माना गया ] यह परिणामवाद का सिद्धान्त प्रमाणों की दृष्टि से निन्दनीय ( खण्डनीय ) है । अचेतन प्रकृति ( प्रधान ) बिना किसी चेतन सत्ता का आश्रय लिये हुए प्रवृत्त नहीं हो सकती । स्वर्णादि से जो कंगन आदि बनाने के लिए उपादान ( Material ) कारण हैं, [ इन आभूषणों का निर्माण करने के समय ] स्वर्णकार आदि चेतन आधार प्राप्त होते हैं । 'सुख, दुःख और मोह के रूप से युक्त होना' आदि जो साधन के रूप में प्रस्तुत किया गया है उसकी व्याप्ति तो साध्य के विरुद्ध स्थानों में भी है । [ यहां सांख्यों के अनुसार साध्य है-चेतन सत्ता का बिना सहारा लिये हुए ही प्रकृति का सुख, दुःख और मोहात्मक पादार्थों का कारण होना का सहारा लेकर सुख, दुःख और मोहात्मक पदार्थों का
।
इसका उलटा है - चेतन सत्ता
कारण बनना । उपर्युक्त साधन
( हेतु ) अर्थात् 'सुख, दुःख और मोह से युक्त होना' इसी साध्य विपर्यय से व्याप्त होता
सहारा लेकर सुखादि से
है । दूसरे शब्दां में – सुखादि से युक्त वही होगा जो चेतन का युक्त पदार्थों का कारण बन सकता है । यदि साधन साध्याभाव से व्याप्त हो तो विरुद्ध हेतु नाम का हेत्वाभास होता है । ] अतः यहाँ पर उसी प्रकार का विरुद्ध हेतु है जिस तरह किसी वस्तु को नित्य सिद्ध करने के लिए हेतु दें कि 'यह उत्पन्न होती है' । [ उत्पन्न होने से तो कोई वस्तु अनित्य ( साध्याभाव ) ही सिद्ध हो जायगी, नित्य नहीं । उसी तरह सांख्यों के द्वारा, यह सिद्ध करने के लिए कि प्रकृति चेतन की सहायता नहीं लेते हुए भी सुखादि
१. देखिए, सांख्यदर्शन – ' ततश्च सुखदुःखमोहात्मकस्य प्रपञ्चस्य तथाविधकारणमवधार
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णीयम् । तथा च प्रयोगः - विमतं भावजातम्...' इत्यादि । ( पृ० ६४० ) i