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पातञ्चरु-दर्शनम्
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उनमे मधुमती वह समाधि-सिद्धि है जिसमें अभ्यास और वैराग्य आदि के कारण रजस् और तमस का लेश ( थोड़ा अंश ) भी न बच्चा हो, तथा सुखमम और प्रकाशमय सत्त्व ( बुद्धिसत्त्व ) की भावना ( ज्ञान ) से स्वच्छ स्थितिप्रवाह ( अनवद्य वैशारद्य ) प्रकाशित होता है जिसे दूसरे शब्दों में ऋतम्भरा प्रज्ञा भी कहते हैं। कहा गया है - 'उस अवस्था में ऋतंभरा ( सत्य का भरण करनेवाली ) प्रज्ञा ( ज्ञान ) रहता है' (यो० सू० ११४८ ) । ऋत अर्थात् सत्य का जो भरण-पोषण करे, कभी भी विपर्यय ( विरोधी ) ज्ञान से आच्छादित न हो सके। उस अवस्था में ( तत्र ) = स्थिरता आ जाने पर, द्वितीय प्रकार के योगी ( मधुभूमिक) लोगों की यह प्रज्ञा होती है । यह अर्थ है । [ ऋतम्भरा प्रज्ञा मधुभूमिक योगियों को प्राप्त होती है । ]
चत्वारः खलु योगिनः प्रसिद्धाः प्राथमकल्पिको मधुभूमिकः प्रज्ञाज्योतिरतिक्रान्तभावनीयश्चेति । तत्राभ्यासी प्रवृत्तमात्रज्योतिः प्रथमः । न त्वनेन परचित्ताविगोचरज्ञानरूपं ज्योतिर्वशीकृतमित्युक्तं भवति । ऋतम्भरप्रज्ञो द्वितीयः । भूतेन्द्रियजयो तृतीयः । परवैराग्यसम्पन्नचतुर्थः ।
योगियों के चार भेद प्रसिद्ध हैं - ( १ ) प्राथमकल्पिक, (२) मधुभूमिक, (३) प्रज्ञाज्योति और ( ४ ) अतिक्रान्तभावनीय । उनमें प्रथम अर्थात् प्राथमकल्पिक योगी वह है जो अभ्यास में लगा हो तथा जिसका ज्ञान अभी केवल प्रवृत्त हुआ है ( परिपक्व नहींज्ञान वश में नहीं हुआ है अतः वह दूसरों के चित्त का ज्ञान नहीं पा सकता ) । कहना यह है कि उस योगी ने दूसरों से चित्त आदि में संचरित ज्ञानरूपी ज्योति को वश में नहीं किया है । द्वितीय अर्थात् मधुभूमिक योगी वह है जिसकी प्रज्ञा ऋतम्भरा है । [ इसने जीवों तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं की है परन्तु जीतने की इच्छा करता है - इसे
मधुमती नाम की योगसिद्धि कहते हैं ।] तृतीय अर्थात् प्रज्ञाज्योति योगी वह है जिसने सभी भूतों ( Beings ) तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है । अन्त में अतिकान्तभावनीय योगी उसे कहते हैं जो परम वैराग्य से युक्त है । [ यह योगी सभी प्रकार की भावनायें किये हुए है- अब इसके लिए कोई चीज भावनीय ( ज्ञेय ) नहीं । यह जीवन्मुक्त है । जो सभी भावनीय पदार्थों की सीमा पार कर चुका है वह अतिक्रान्तभावनीय है । ]
( २४ ख. अन्य सिद्धियाँ - मधुप्रतीका, विशोका, संस्कारशेषा )
मनोजवित्वादयो मधुप्रतीक सिद्धयः । तदुक्तं - ' मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च' ( पात० यो० सू० ३।४८ ) इति । मनोजवित्वं नाम कायस्य मनोवदनुत्तमो गतिलाभः । विकरणभावः कार्यनिरपेक्षाणामिन्द्रियाणामभिमत देशकालविषयापेक्षवृत्तिलाभः । प्रधानजयः प्रकृतिविकारेषु सर्वेषु वशित्वम् ।
४० स० सं०