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पातब्बलमसनम्
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सहायता से विवेकज्ञान स्वभाववाले बुद्धि-तत्त्व को आच्छादित कर देते हैं। इसी से संसार में आने-जाने का सिलसिला चलता है । बुद्धि सांसारिक व्यापार में लगी रहती है। प्राणायाम का अभ्यास करने से ये क्लेश दुर्बल हो जाते हैं तथा अपना कार्य नहीं कर सकतेक्षण-क्षण क्षीण होते जाते हैं । इसलिए प्राणायाम को तप कहा गया है। यही नहीं, चान्द्रायण आदि तपों से तो पापकर्म ही क्षीण होता है। प्राणायाम से उनके मूल क्लेशों का भी नाश हो जाता है । इसलिए ] प्राणायाम से बढ़कर कोई तप नहीं है । ___ "जिस प्रकार आग में जलाये जानेवाले धातुओं ( सोना, चाँदी आदि ) का मल जल जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम से इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले मल नष्ट हो जाते हैं ।। ५७ ॥
( २३. प्रत्याहार का निरूपण ) तदेवं यमादिभिः संस्कृतमनस्कस्य योगिनः संयमाय प्रत्याहारः कर्तव्यः। चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां प्रतिनियतरञ्जनीयकोपनीयमोहनीयप्रवणत्वप्रहाणेन अविकृतस्वरूपप्रवणचित्तानुकारः प्रत्याहारः । इन्द्रियाणि विषयेभ्यः प्रतीपमाह्रियन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्तेः।
इस प्रकार यमादि के द्वारा अपने अन्तःकरण को पवित्र करके योगी को संयम के लिए प्रत्याहार का प्रयोग करना चाहिए। [ योग के आठ अङ्गों में अन्तिम तीनों अन्तरङ्ग साधन हैं। उन्हें संयम भी कहते हैं। संयम की सिद्धि प्रत्याहार के बिना नहीं होती। इसलिए प्रत्याहार की सिद्धि पहले करें। ] चक्षु आदि इन्द्रियों की अपने-अपने साथ निश्चित रागोत्पादक, कोपोत्पादक तथा मोहोत्पादक विषयों में जो आसक्ति ( प्रवणत्व ) होती है उसका नाश करके, निर्विकार आत्मा के स्वरूप में लीन चित्त का अनुकरण [ यदि इन्द्रियाँ करने लगें तो वह ] प्रत्याहार कहलाता है। [ इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों के साथ निश्चित रहती हैं। कुछ विषय किसी के लिए रंजनीय या रागोत्पादक होते हैं, कुछ कोपोत्पादक
और कुछ मोहप्रद हैं। इन विषयों में इन्द्रियाँ आसक्त रहती हैं। बद्ध-जीवों में इन्द्रियाँ विषयों के अनुरोध से चलती हैं और चित्त इन्द्रियों के अनुरोध से चलता है । प्रत्याहार में इन्द्रियाँ ही चित्त के अनुरोध से चलने लगती हैं। चित्त जब निरोध की ओर लगा दिया जाता है, तो बिना किसी विशेष प्रयत्न के ही इन्द्रियों का निरोध हो जाता है । यही चित्त का अनुकरण या प्रत्याहार कहलाता है। ] इसको व्युत्पत्ति है कि इसमें इन्द्रियों के विरुद्ध (प्रतीप ) खींच ली जाती हैं (आ+ह)। [ प्रति = प्रतीप, आ+Vह ।]
ननु तदा चित्तमभिनिविशते नेन्द्रियाणि । तेषां बाह्यविषयत्वेन सामOभावात् । अतः कथं चित्तानुकारः। अद्धा । अत एव वस्तुतस्तस्यासम्भवमभिसन्धाय सादृश्यार्थमिवशब्दं चकार सूत्रकारः-'स्वविषयासम्प्र