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सर्वसनसंबहे५५. श्रुत्योरगुष्ठको मध्यागुल्यो नासापुटद्वये ।
सृविकण्योः प्रान्त्यकोपान्त्यागुली शेषे दृगन्तयोः॥ पृथ्वीतत्त्व तथा जलतत्त्व से ( इनके बहने पर ) क्रमशः शान्ति और [ आरम्भ किये गये ] कार्य में फल को अधिकता मिलती है । अग्नितत्त्व के बहने पर [ चित्तवृत्ति ] दीप्त होती है, वायुतत्त्व में अस्थिरता और आकाशतत्त्व के बहने पर चित्तवृत्ति अव्यूह (वियोग) के रूप में हो जाती है ।। ५२ ॥ अब हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाशतत्त्व के चिह्न कहते हैं--प्रथम ( पृथ्वी ) तत्त्व में चित्त की स्थिरता मालूम पड़ती है । दूसरे ( जल ) तत्त्व को शीतलता के कारण इच्छायें उत्पन्न होती हैं ।। ५३ ॥ तीसरे तत्त्व में क्रोध सन्ताप उत्पन्न होते हैं, चौथे (वायु) में चंचलता का अनुभव होता है। पांचवें ( आकाश ) तत्त्व में या तो शून्यता या अधर्म की भावना उत्पन्न होती है ॥ ५४ ॥
[अब एक विशिष्ट मुद्रा के द्वारा शून्य को देखने की विधि का निरूपण करते हैं-] दोनों कानों के छेदों को अंगूठों से बन्द कर दें, मध्यमा अंगुलियों को नासिका के छेदों पर रख दें, दोनों ओष्ठों पर कनिष्ठा ( प्रान्त्यक ) और अनामिका ( उपान्त्य ) अंगुलियों को रख दें तथा बाकी बची हुई ( तर्जनी ) अंगुलियों को आंखों पर रख दें ।। ५५ ॥
५६. न्यस्यान्तःस्थपृथिव्यादितत्त्वज्ञानं भवेत्क्रमात् ।
पीतश्वेतारुणश्यामबिन्दुभिनिरुपाधि खम् । इत्यादिना । यथावद्वायुतत्त्वमवगम्य तन्नियमने विधीयमाने विवेकज्ञानावरणकर्मक्षयो भवति । तपो न परं प्राणायामादिति ।
५७. दह्यन्ते ध्मायमानानांधातूनां हि यथा मलाः।
प्राणायामैस्तु दह्यन्ते तद्वदिन्द्रियजा मलाः ॥ इति च । [ उपर्युक्त विधि से अंगुलियों को ] रखकर अन्तर में स्थित पृथिवी आदि तत्त्वों का ज्ञान क्रमशः होता है । इसके बाद पीत, श्वेत, अरुण तथा श्याम बिन्दुओं से उपाधिहीन आकाश-तत्त्व का दर्शन होता है। [ दोनों हाथों की अंगुलियों से बाहरी द्वारों को बन्द करके अन्तदृष्टि से देखने पर बिन्दु दिखाई पड़ता है। पीतवर्ण का दिखलाई पड़ने पर समझें कि पृथ्वी तत्त्व बह रहा है । श्वेत बिन्दु दिखलाई पड़ने पर जलतत्त्व, अरुण बिन्दु होने पर अग्नि-तत्त्व तथा श्याम बिन्दु होने पर वायुतत्त्व समझें। किसी भी वर्ण से रहित केवल घेरा भर दिखलाई दे तो आकाश तत्त्व समझें। इसलिए आकाश को उपाधिहीन अर्थात् वर्णरहित कहा गया है ] ॥५६॥'
उक्त रीति से वायुतत्त्व को यथार्थरूप में जानकर, उसे नियन्त्रित करने की जो विधियां बतलाई गई है [ उनके द्वारा = प्राणायाम से वायु का निरोध करने से ] विवेकज्ञान को आवृत करनेवाले कर्मों का नाश हो जाता है । [ कर्म = कर्म से उत्पन्न पुण्य तथा कर्म के कारणरूप अविद्या आदि क्लेश । ये क्लेश महामोह से भरे हुए शब्दादि विषयों की