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पातञ्जल-दर्शनम्
( ३. प्रथम सूत्र की व्याख्या- 'अर्थ' शब्द का अर्थ )
तत्र 'अथ योगानुशासनम्' ( पा० यो० सू० १1१ ) इति प्रथमसूत्रेण प्रेक्षावत्प्रवृत्यङ्ग विषयप्रयोजनसम्बन्धाधिकारिरूपमनुबन्धचतुष्टयं प्रतिपाद्यते ।
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अत्रायशब्दोऽधिकारार्थः स्वीक्रियते । अथशब्दास्यानेकार्थत्वे सम्भवति कथमारम्भार्यत्वपक्षे पक्षपातः सम्भवेत् ? अथशब्दस्य मङ्गलाद्यनेकार्थत्वं नामलिङ्गानुशासनेनानुशिष्टं - 'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येष्वथो अथ ।' ( अमरको० ३।३।२४६ ) इति । अत्र प्रश्नकात्स्ययोरसम्भवेऽपि आनन्तर्यमङ्गलपूर्वप्रकृतापेक्षा रम्भलक्षणानां चतुर्णामर्थानां सम्भवादारम्भार्थत्वानुपपत्तिरिति चेत्
'अब योग का विश्लेषण होगा' ( यो० सू० १1१ ) इस प्रथम सूत्र के द्वारा विचारशील व्यक्तियों की प्रवृत्ति के बंग के रूप में विषय ( Subjectmatter ), प्रयोजन (Aim ), सम्बन्ध ( Relation ) और अधिकारी ( Qualified person ) रूपी चार अनुबन्धों का प्रतिपादन किया जाता है । [ प्रस्तुत स्थल में अनुबंध एक पारिभाषिक शब्द है । सभी शास्त्रों के आरम्भ में इन चार अनुबन्धों पर विचार किया जाता है वह शास्त्र चाहे व्याकरण हो या वेदान्त, मायुर्वेद हो या ज्योतिष । शास्त्र में जिस पदार्थ का प्रतिपादन करना हो उसे विषय कहते हैं। किसी शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय क्या है ? उसके प्रतिपादन का क्या फल - - प्रयोजन है ? उस शास्त्र के विषय, फल और अधिकारियों में क्या सम्बन्ध है ? उस शास्त्र के अध्ययन का अधिकार किन-किन व्यक्तियों को है ? इन सब बातों की जानकारी जब तक नहीं होती तब तक लोगों की प्रवृत्ति उस शास्त्र की ओर नहीं होगी । अनुबन्ध-चतुष्टय के ज्ञान के अनन्तर ही लोग किसी शास्त्र में प्रवृत्ति दिखा सकते हैं । लौकिक व्यवहार में भी किसी वस्तु की ओर हम तभी अभिमुख होते हैं जब जान लेते हैं कि वह क्या है, उससे क्या लाभ है, उससे अधिकारी कौन हैं ? इत्यादि । ]
उक्त सूत्र में 'अर्थ' शब्द अधिकार ( आरम्भ ) के अर्थ में स्वीकृत होता है । यहाँ एक शंका हो सकती है कि जब 'अथ' शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं तब क्या कारण है कि आप लोग यहाँ आरम्भ के अर्थ पर ही पक्षपात कर रहे हैं ? नामलिंगानुशासन ( अर्थात् अमरकोश ) में 'अथ' शब्द के मंगल आदि अनेक अर्थ दिये हैं – 'अथो और अथ, ये दोनों शब्द मंगल ( Auspiciousness ), अनन्तर ( After ), आरम्भ ( अधिकार Beginning ), प्रश्न ( Query ) तथा पूर्णता ( All ) – इन अर्थों में होते हैं' ( अमरकोश ३।३।२४६ । [ अथ शब्द मंगल का वाचक तो नहीं होता, उसका साधन भले ही हो सकता है । अमरकोश में ऐसे शब्दों का भी संग्रह है जो किसी अर्थ के वाचक नहीं हैं— जैसे, तु, हि, च, स्म, ह आदि शब्दों का पदपूरण अर्थ देना । इन शब्दों का पदपूरण वाच्यार्थ
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