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सर्वदर्शनसंग्रहे
मनोदपनमुच्यते ।
जप्यमानस्य मन्त्रस्य गोपनं त्वप्रकाशनम् ॥
'तार ( ॐ ), व्योम (ह), अग्नि (र), मनु ( औ ) | तथा अनुस्वार ] से युक्त होने पर = ॐ ह्रौं ) ज्योतिर्मन्त्र बनता है । विधिपूर्वक जपे गये ( जप्त ) वारिबीज ( = वं ) के द्वारा मन्त्र के ( मनो: ) प्रत्येक वर्ण पर कुश से जल छिड़कना ( कुशोदकेन प्रोक्षणम् ) आप्यायन ( Fattening ) संस्कार है । मन्त्रयुक्त जल से मन्त्र में तर्पण करना ( जल छोड़ना ) तर्पण ( Satisfying ) संस्कार है ॥ २४-२५ ॥ तार ( ॐ ), मायाबीज ( ह्रीं ) और लक्ष्मीबीज ( श्रीं ) से मन्त्र ( मनु ) को संयुक्त दीपन ( Illuminating ) कहलाता है । जिस मन्त्र का जप करना है, उसे प्रकाशित नहीं करना गोपन संस्कार ( Concealing ) है ॥ २६ ॥
२६. तारमायारमायोगो
२७. संस्कारा दशमन्त्राणां सर्वतन्त्रेषु गोपिताः । यत्कृत्वा सम्प्रदायेन मन्त्री वाञ्छितमश्नुते ॥ २८. रुद्धकीलितविच्छिन्न सुप्तशप्तादयोऽपि च ।
मन्त्रदोषाः प्रणश्यन्ति संस्कारैरेभिरुत्तमैः ॥ इति । तदलमकाण्ड ताण्डवकल्पेन तन्त्र रहस्योद्घोषणेन ।
'मन्त्रों के ये दस संस्कार सभी तन्त्रों में छिपाये गये हैं । सम्प्रदाय - ज्ञानपूर्वक ( गुरुशिष्य-परम्परा से जानकर ) जो मन्त्र साधक इन्हें सम्पादित करता है वह अपने अभीष्ट फल की प्राप्ति करता है ।। २७ ।। रुद्ध ( आदि, मध्य या अन्त में लं लं से युक्त ), कीलित, विच्छिन्न, सुप्त शप्तादि सारे मन्त्रदोष इन उत्तम संस्कारों से नष्ट हो जाते हैं' ॥ २८ ॥ तो काण्ड ( असमय में ) ताण्डव नृत्य की तरह यहाँ पर तन्त्रशास्त्र के रहस्य का व्याख्यान क्यों करें ? [ अपने प्रस्तुत प्रसंग पर चलें । ]
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( १९. ईश्वरप्रणिधान और क्रियायोग का उपसंहार ) ईश्वरप्रणिधानं नामाभिहितानामनभिहितानां च सर्वासां क्रियाणां परमेश्वरे परमगुरौ फलानपेक्षया समर्पणम् । यत्रेदमुक्तम् -
१. तुलनीय - आदिमध्यावसानेषु
भूबीजद्वन्द्व लाञ्छितः । रुद्धमन्त्रः स विज्ञेयो भुक्तिमुक्तिविवर्जितः ॥ १ ॥ माया नमामि च पदं नास्ति यस्मिन्स कीलितः । मनोर्यस्यादिमध्यान्तेष्वा निलं बीजमुच्यते ॥ २ ॥ संयुक्तं वा वियुक्तं वा स्वराक्रान्तं त्रिधा पुनः । चतुर्धा पञ्चधा वाथ स मन्त्रश्छिन्नसंज्ञकः ॥ ३ ॥ त्रिवर्णो हंसहीनो यः सुषुप्तः समुदाहृतः ॥ भूबीज = लं । राप्त = किसी के द्वारा जिसकी शक्ति नष्ट हो गई हो ।