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पातञ्जल-दर्शनम्
२९. कामतोऽकामतो वापि यत्करोमि शुभाशुभम् । तत्सर्वं त्वयि विन्यस्तं त्वत्प्रयुक्तः करोम्यहम् ॥ इति ।
विहित या अविहित ( वैदिक या लौकिक ) -- सभी प्रकार के कर्मों को परमगुरु परमेश्वर में, फल की आशा बिना रखे हुए ही, समर्पित कर देना ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है । इसीलिए यह कहा गया है - 'किसी कामना से या बिना किसी कामना के जो शुभ या अशुभ कर्म मैं कर रहा हूँ, वह सब तुम्हें ( ईश्वर ) को समर्पित कर दे रहा हूँ, क्योंकि तुम्हारे द्वारा ही प्रेरित होकर मैं वे कर्म करता हूँ ।'
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क्रियाफलसन्यासोऽपि भक्तिविशेषापरपर्यायं प्रणिधानमेव । फलानभिसंधानेन कर्मकरणात् । तथा च गीयते गीतासु भगवता३०. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
( गी० २।४७ ) इति । फलाभिसंधेरुपघातकत्वमभिहितं भगवद्भिनलकण्ठभारती श्रीचरण :३१. अपि प्रयत्नसम्पन्नं कामेनोपहतं तपः । न तुष्टये महेशस्य श्वलीढमिव पायसम् ॥
इति ।
ही है जिसे एक प्रकार की भक्ति भी कहते हैं । कर्म किया जाता है | भगवान् कृष्ण ने गीता में अधिकार केवल कर्म करने का है, फल पाने का कामना से तुम कर्म मत लाओ ॥ ३० ॥ ' ( गी० इसके अतिरिक्त ] भगवान श्रीचरण नीलकण्ठ भारतीजी ने कहा है कि आकांक्षा रखना हानिकारक भी है -- तपस्या यदि प्रयत्नपूर्वक भी की गयी हो, किन्तु किसी कामना से उपहृत (संयुक्त) हो तो महेश्वर उससे सन्तुष्ट नहीं होते, जैसे कुत्ते के द्वारा चाटा गया दूध [ तुष्टिकारक नहीं होता ] ॥ ३१ ॥ '
क्रियाफल से संन्यास लेना ( फल की आशा न रखते हुए कर्म करना ) भी प्रणिधान इसमें फल की आकांक्षा नहीं रखते हुए ऐसा ही कहा है - 'हे अर्जुन, तुम्हारा अधिकार कभी नहीं है । कर्म-फल की करो और कर्म न करने में भी तुम अपनी रुचि मत दिख२।४७ ) ।
( २०. क्रिया ही योग है - शुद्धा सारोपा लक्षणा )
सा च तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानात्मिका क्रिया योगसाधनत्वाद्योग इति शुद्धसारोपलक्षणावृत्त्याश्रयणेन निरूप्यते, यथायुर्धृतमिति ।
शुद्धसारोपलक्षणा नाम लक्षणाप्रभेदः । मुख्यार्थबाधतद्योगाभ्यामर्थान्तरप्रतिपादनं लक्षणा । सा द्विविधा - रूढिमूला प्रयोजनमूला च । तदुक्तं काव्यप्रकाशे