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सर्वदर्शनसंग्रहे
३२. मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया ।। ( का० प्र० २१९ ) इति ।
तप, स्वाध्याय और ईश्वर - प्रणिधान के रूप में जो क्रिया है वह योग का साधन है, इसलिए उसे योग भी कहते हैं। ऐसा निरूपण तभी हो सकता है, जब शुद्धा सारोपा लक्षणावृत्ति की सहायता लें। जैसे इस उदाहरण में – ' आयुः घृतम्' में आयु शब्द से 'आयु का साधन' यह लक्षित होता है, वैसे ही - ' तपः स्वाव्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः' ( यो० सू० २1१ ) में योग शब्द से 'योग का साधन' लक्षित होता है । ]
शुद्धा सरोपा लक्षणा लक्षणावृत्ति का एक अवान्तर भेद है । [ शुद्धा लक्षणा गौणी से भिन्न होती है । जो लक्षणा सादृश्य सम्बन्ध के आधार पर है, उसे गौणी कहते हैं, जैसेयह राजा सिंह है । यहाँ वीरता, क्रूरता आदि गुणों के कारण सिंह के सदृश लगनेवाले राजा में सिंह शब्द का प्रयोग हुआ है । जिस लक्षण का आधार सादृश्य के अतिरिक्त कोई दूसरा सम्बन्ध हो उसे शुद्धा कहते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में योग शब्द योग के साधन के अर्थ में प्रयुक्त है | यहाँ लक्षणा कार्यकारण भाव रूपी सम्बन्ध पर आधारित है । इसलिए शुद्धा लक्षणा है । सारोपा का भेद साध्यवसाना लक्षणा से होता है । विषय और विषयी में भेद करते हुए दोनों का उल्लेख करना आरोप है । जहाँ ऐसा आरोप हो वह सारोपा लक्षणा होती है । जैसे प्रस्तुत प्रसंग में योग विषयी है, क्योंकि यही आरोप्य है, आरोप का विषय है तप आदि क्रियाएं । क्रिया और योग दोनों का उल्लेख हुआ है। फिर भी भेद बना हुआ है । 'आयु घी है' में भी 'आयु का साधन घी हैं'- - इस तरह भेद बना हुआ है । 'राजा सिंह है' यहाँ भी सारोपा ही है, क्योंकि दोनों में भेद बना हुआ है । दूसरी ओर यदि राजा का उच्चारण न करके 'यह सिंह' ऐसा कहें तो यह साध्यवसाना लक्षणा हुई । साध्यवसाना में केवल विषयी का ही उल्लेख होता है-विषयी का वाचक शब्द विषयवाचक शब्द को निगल जाता है ।
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लक्षणा वह वृत्ति है जिसमें मुख्य अर्थ का बाध ( वाक्य के शेष पदों के साथ अन्वय न हो सकना ) तथा उसके सम्बन्ध ( योग ) के द्वारा दूसरे अर्थ का प्रतिपादन हो । इसके दो भेद हैं- रूढ़िमूलक तथा प्रयोजनमूलक । इसे काव्यप्रकाश में कहा है- जहाँ मुख्य अर्थ ( Primary Meaning ) के साथ अन्वय न हो सके, किन्तु उससे सम्बद्ध अर्थ का अन्वय हो, रूढ़ि या प्रयोजन के कारण जहाँ पर दूसरा अर्थ लक्षित हो वह लक्षणा अर्थात् शब्द की आरोपित क्रिया है ।' ( काव्यप्रकाश, २१९ ) 1
विशेष - 'गङ्गायां घोष:' एक वाक्य है जिसमें 'गंगा' शब्द का मुख्य अर्थ है--' एक नदी का जल' । किन्तु बाधित हो जाता है -- जल में घोष ( ग्वालों की वस्ती ) नहीं रह सकता । इस प्रकार वाक्य में 'गंगा' के मुख्य अर्थ का अन्वय होना असम्भव है, इसे ही