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पातजलपर्शनम् ३४. सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तो विषयी विषयस्तथा।
विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन्सा स्यात्साध्यवसानिका ।। ३५. भेदाविमौ च सादृश्यात्सम्बन्धान्तरतस्तथा। गौणौ शुद्धौ च विज्ञेयो लक्षणा तेन षड्विधा ।
(का०प्र० २।१०-१२) इति । तदलं काव्यमीमांसामर्मनिर्मन्थनेन ।
इसे कहा गया है-'अपनी (मुख्यार्थ को ) सिद्धि ( वाक्य में अन्वय ) करने के लिए परार्थ का ग्रहण करना तथा परार्थ के लिए अपना ( मुख्यार्थ का ) त्याग कर देना क्रमशः उपादानलक्षणा और लक्षणलक्षणा हैं-इस तरह शुद्धा लक्षणा दो प्रकार की है ॥ ३३ ॥ दूसरी ( गोणी ) लक्षणा में वह सारोपा है जहाँ विषयी और विषय दोनों अभिहित ( शब्द के द्वारा प्रतिपादित ) हों। किन्तु जब विषयी के द्वारा दूसरा ( = विषय ) अन्तर्भूत कर लिया जाय ( अपने में मिला लिया जाय) तो वह साध्यवसाना होती है ॥ ३४ ॥ ये दोनों भेद सादृश्य सम्बन्ध के कारण होते हैं या सादृश्येतर सम्बन्ध के कारण होते हैं तो उन्हें क्रमशः गौण ( सादृश्य सम्बन्ध ) और शुद्ध ( सादृश्येतर सम्बन्ध ) समझना चाहिए-इसलिए लक्षणा छह प्रकार की हुई ।। ३५ ।।' ( काव्यप्रकाश, २०१०-१२ )। काव्यशास्त्र के अभिप्राय की अधिक छान-बीन करने से हमें क्या लाभ है ?
(२१. योग के आठ अंग-यम और नियम ) स च योगो यमादिभेदवशादष्टाङ्ग इति निर्दिष्टः । तत्र यमा अहिंसादयः । तदाह पतञ्जलि:-'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः' (पात० यो० सू० २।३०) इति । नियमाः शौचादयः। तदप्याह-'शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः' (पात० यो० सू० २।३२ ) इति ।
यमादि भेदों के कारण उक्त योग आठ अंगों से युक्त है, ऐसा निर्देश किया गया है। उन योगों में अहिंसा आदि को यम कहते हैं जैसा पतञ्जलि ने कहा है-'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यम हैं' ( यो० सू० २।३०)। शौच आदि नियम हैं । उन्हे भी कहा है-'शीच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान-ये नियम है' ( यो० सू० २।३२ )। एते च यमनियमा विष्णुपुराणे दर्शिताः-- ३६. ब्रह्मचर्यमहिंसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान् ।
सेवेत योगी निष्कामो योग्यता स्वं मनो नयन् ।। ३७. स्वाध्यायशौचसन्तोषतपांसि नियतात्मवान् ।
कुर्वीत ब्रह्मणि तथा परस्मिन्प्रवणं मनः ।।