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सर्वदर्शनसंग्रहे
करने के लिए तत्संयुक्त परार्थ -- कुन्तधारी पुरुष -- का ग्रहण किया गया है । इस लक्ष्यार्थ में कुन्त का भी ग्रहण हुआ है, उसे छोड़ा नहीं गया है । ]
( २ ) लक्षणलक्षणा ( Indicative Indication ) -- ' मञ्चाः क्रोशन्ति' अर्थात् मंच पर बैठे हुए पुरुष चिल्लाते हैं । [ शब्दार्थ अपने से सम्बद्ध अर्थ की सिद्धि अर्थात् वाक्य में अन्वय करने के लिए अपना ही ( मुख्यार्थ ) का त्याग कर देता है । लक्षण = स्वार्थ को त्याग कर परार्थ को लक्षित करना । मव को अपना अर्थ यहाँ छोड़ देना पड़ता है । पुरुष चिल्लाते हैं, मञ्च नहीं । मभ्व से विशिष्ट पुरुष नहीं चिल्ला सकते हैं । लक्षणा के ये दोनों भेद शुद्धा लक्षणा हैं, गौणी नहीं । गौणी में सादृश्य-सम्बन्ध का आधार रहता है शुद्धा में सादृश्य से भिन्न सम्बन्धों का आधार लिया जाता है । ]
( ३ ) गौणसारोपा ( Qualified superimponent Indication )— 'गौर्वाहीक: ' अर्थात् यह पंजाबी बेल है । [ आरोप = विषय और विषयी दोनों का अभेद रूप में उपन्यास | जहाँ विषय और विषयी दोनों शब्दशः स्पष्ट हों वही सारोपा है । उक्त उदाहरण में गौ शब्द से, बुद्धि की मन्दता आदि गुणों का सादृश्य देखकर, जड़-अर्थ लक्षित होता है । विषयी का निर्देश 'गो' शब्द से हुआ है, आरोप के विषय का 'वाहीक' शब्द के द्वारा निर्देश हुआ है । ]
( ४ ) गौणसाध्यवसाना ( Qualified Introsuspective Indication )— 'गौरयम्' अर्थात् यह बेल है । [ सादृश्य सम्बन्ध के आधार पर ही आरोप्यमाण विषयी ( गौ ) आरोपित विषय को निगल गया है । विषय की सत्ता केवल 'अयम' ( सर्वनाम ) के द्वारा प्रकट है, 'वाहिक' बिल्कुल विलीन हो गया । ]
( ५ ) शुद्धसा रोपा ( Pure superimponent Indication ) –‘आयुर्घतम्’ अर्थात् घी ही आयु है । [ सादृश्येतर सम्बन्ध के आधार पर ( शुद्धा ) विषयी और विषय का पृथक्-पृथक् उल्लेख रहता है । आयु और घी में सादृश्य सम्बन्ध नहीं है, कार्यकारण सम्बन्ध है । ये दोनों क्रमशः विषयी और विषय हैं—दोनों का पृथक् उपन्यास भी हुआ है। घी आयु का साधन है। प्रस्तुत योग के प्रसंग में यही लक्षणा है । ]
(६) शुद्ध साध्यवसाना ( Pure Introsuspective Indication ) - ' आयुवेदम्' यह आयु ही है । [ सादृश्येतर सम्बन्ध के आधार पर ( शुद्धा ) विषयी जब विषय को अन्तर्भूत कर ले वही शुद्धा - साध्यवसाना है । आयु ( विषयी ) घी (विषय) को निगल गया है और सत्ता मात्र उसकी बची है - 'इदम्' । इस तरह ये छह भेद हैं । ]
तदुक्तम्
३३. स्वसिद्धये पराक्षेपः परार्थं स्वसमर्पणम् । उपादानं लक्षणं चेत्युक्ता शुद्धंव सा द्विधा ॥