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पातञ्जल- दर्शनम्
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बार ही करना है । प्रत्येक अक्षर के बाद प्रणव देना है - ॐ न ॐ मः ॐ शि ॐ वा ॐ य ॐ इस तरह पांच बार जप करें, तो मन्त्र का जीवन संस्कार हो जायगा । ]
विशेष – मातृकायन्त्र वर्णों का बना हुआ एक यन्त्र ( Figure ) है, जिसमें अक्षरों का न्यास या स्थापन होता है । मन्त्र की प्राप्ति के लिए प्रत्येक तान्त्रिक को यह तन्त्र बनाना पड़ता है । यह चतुर्भुज होता है । शक्तिमन्त्र के उद्धार के लिए कुमकुम से, विष्णुमन्त्रोद्धार में चन्दन से तथा शिवमन्त्र के उद्धार में भस्म से स्वर्ण आदि के पात्र में बनाते हैं । क से लेकर म तक के पाँच वर्गों को क्रमशः पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम में तथा अन्तःस्थ वर्णों को वायव्य में, ऊष्म वर्णों को उत्तर में और ल, क्ष को ईशान कोण में लिखें | इसी यत्र से मन्त्र के अक्षरों की भावना करें ।
२०. मन्त्रवर्णान्समालिख्य ताडयेच्चन्दनाम्भसा । प्रत्येकं वायुबीजेन ताडनं तदुदाहृतम् ॥ २१. विलिख्य मन्त्रवर्णास्तु प्रसूनैः करवीरजैः । मन्त्राक्षरेण संख्यातैर्हन्यात्तद्बोधनं स्मृतम् ॥ २२. स्वतन्त्रोक्तविधानेन मन्त्री मन्त्रार्णसंख्यया । अश्वत्थपल्लवैर्मन्त्रमभिषिञ्चेद्विशुद्धये
२३. संचिन्त्य मनसा मन्त्रं ज्योतिर्मन्त्रेण निर्दहेत् । मन्त्रे मलत्रयं मन्त्री विमलीकरणं हि तत् ॥
'मन्त्र के वर्णों को लिखकर चन्दन - जल से उसे मारना चाहिए और हर एक बार वायुबीज ( i ) का उच्चारण करते रहें- इसे ही ताडन संस्कार ( Smiting ) कहते हैं ॥ २० ॥ मन्त्र के वर्णों को लिखकर करवीर ( कनेर ) के फूलों से मन्त्र के अक्षरों की जितनी संख्या हो उतने बार मारना चाहिए - इसे बोधन ( Awakening ) मानते हैं ॥ २१ ॥ अपने तन्त्र में कहे गये विधान के अनुसार मन्त्र-साधक को मन्त्र के वर्णों की संख्या के जितने बार पीपल के पत्तों से मन्त्र का अभिषेक ( Sprinkling ) शुद्धि के लिए करना चाहिए || २२ ।। मन में मन्त्र का चिन्तन करते हुए मन्त्र -साधक को, ज्योति - मन्त्र के द्वारा, मन्त्र में विद्यमान तीनों मलों को जला देना चाहिए - यही विमलीकरण ( Purification ) है ॥ २३ ॥ [ ये तीन मल हैं - मायिक, कार्मण और आनव्य ( अनवीनता, वृद्धता ) । ये मल मन्त्रों के लिंग के अनुसार रहते हैं । स्त्रीलिंग मन्त्रों में मायिक, पुल्लिंग में कार्मण और नपुंसक में आनव्य । ]
२४. तारव्योमाग्निमनुयुग्ज्योतिर्मत्र उदाहृतः । कुशोदकेन जप्तेन प्रत्यर्णं प्रोक्षणं मनोः ॥ २५. वारिबीजेन विधिवदेतदाप्यायनं मतम् । मन्त्रेण वारिणा मन्त्रे तर्पणं तर्पणं स्मृतम् ॥