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पातञ्जल- दर्शनम्
न तृतीयः । नञोऽस्त्यर्थानां बहुव्रीहिर्वा चोत्तरपदलोपश्चेति वृत्तिकारवचनानुसारेणाविद्यमाना विद्या यस्याः सा अविद्या बुद्धिरिति समासार्थसिद्धौ तस्या अविद्यायाः क्लेशादिबीजत्वानुपपत्तेः । विवेकख्यातिपूर्वक सर्ववृत्तिनिरोधसम्पन्नायास्तस्याः तथात्वप्रसङ्गाच्च ।
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[ अविद्या में बहुव्रीहि समास की भावना करनेवाला ] तीसरा विकल्प भी ठीक नहीं है । [ वार्तिक के रचयिता ( कात्यायन ) का कहना है कि नञ् ( अ, अन् ) के बाद 'होना' ( अस्ति, विद्यमान, वर्तमान ) के वाचक शब्दों का किसी दूसरे पद के साथ बहुव्रीहि समास होता है और [ पूर्व पद में प्रयुक्त शब्दों में से ] उत्तर पद का वैकल्पिक लोप भी होता है । [ जैसे- 'अधन: ' में 'अविद्यमानं धनं यस्य सः' विग्रह करते हैं, अ + विद्यमान ( लोपप्राप्त ) । विद्यमान और धन का समास हुआ है । ] तदनुसार, अविद्यमान है विद्या जिसकी वह अविद्या बुद्धि है । जब इस रूप में समास के अर्थ की सिद्धि करेंगे तो वह अविद्या [ केवल विद्यारहित बुद्धि होने के कारण, कोई भावात्मक पदार्थ न होने के कारण ] क्लेश आदि का कारण नहीं बन सकती ।
[ यदि कोई पूछे कि विद्याभाव को क्लेश का हेतु मान लें तो क्या दोष है ? तो उसका उत्तर यह है - ] वह बुद्धि ही क्लेश आदि का कारण बन जायगी जो विवेक-ज्ञान ( प्रकृति और पुरुष के भेद का दर्शन ) कर लेने के बाद बुद्धि की सभी वृत्तियों के निरोध से सम्पन्न हुई है ।
उक्तं चास्मितादीनां क्लेशानामविद्यानिदानत्वम् - 'अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्' ( पात० यो० सू० २।४ ) इति । तत्र प्रसुप्तत्वं प्रबोधसहकार्यभावेनानभिव्यक्तिः । तनुत्वं प्रतिपक्षभावनया शिथिलीकरणम् । विच्छिन्नत्वं बलवता क्लेशेनाभिभवः । उदारत्वं सहकारिसन्निधिवशात्कार्यकारित्वम् ।
सूत्रकार ने अस्मिता आदि दूसरे क्लेशों को अविद्यामूलक ही माना है - ' बाद के प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार क्लेशों का क्षेत्र ( आधार ) अविद्या ही है' ( यो० सू० २१४ ) । [ पाँच क्लेशों में अविद्या को छोड़कर शेष अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये चार बचते हैं । इन चारों में भी प्रत्येक के प्रसुप्तादि चार-चार भेद हैं । इन सभी भेदों और अवान्तर भेदों की उत्पत्ति अविद्या से ही होती है । मणिप्रभा के अनुसार विदेह प्रकृति में लीन योगियों के क्लेश प्रसुप्त रहते हैं -- विवेकज्ञान न हो सकने के कारण क्लेश दग्ध नहीं हुए हैं और वे शक्ति (Energy ) के रूप में अवस्थित हैं जिससे अन्त में फिर उठ सकते हैं । क्रियायोगियों के क्लेश तनु होते हैं । विषय का सेवन करनेवाले पुरुषों के क्लेश विच्छिन्न और उदार भी होते हैं । राम को जिस वस्तु में राग ( विषयाभिलाषा ) है उसमें द्वेष