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सर्वदर्शनसंग्रहे
तदनुस्मृतिपुरस्सरं तत्साधनेषु निवृत्तिद्वेषः । तदुक्तं- 'सुखानुशयी रागः ' ( पात० यो० सू० २७), 'दुःखानुशयी द्वेषः' द्वेष:' ( पा० यो० सू० २८ ) इति ।
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सत्त्व ( चित्त, बुद्धि ) और पुरुष ( आत्मा ) के बीच 'मैं हूँ' ( अहमस्मि ) इस रूप में एकता का बोध करना अस्मिता है । इसे भी कहा है- 'दृक्शक्ति ( द्रष्टा, पुरुष, आत्मा ) और दर्शनशक्ति ( बुद्धि, कारण ) दोनों में एकाकारता जैसा मान लेना अस्मिता है' ( यो० सू० २१६ ) । [ अनात्मा को आत्मा मानने वाली अविद्या अस्मिता ( Egoism ) उत्पन्न करती है । अविद्या और अस्मिता में कुछ अन्तर है । अविद्या की अवस्था में बुद्धि आदि में सामान्य रूप से 'अहं' की भावना रहती है, किन्तु उसमें कहीं भेद भी रहता है, अभेद भी । परन्तु अस्मिता में आत्यन्तिक ( Perfect ) रूप से अभेद हो जाता है । एकता का भ्रम पूर्णरूप से रहता है कि मैं ईश्वर हूँ, मैं भोगी हूँ इत्यादि । पुरुष अपरिणामी है, बुद्धि परिणामी । दोनों शक्तियाँ ( भोक्ता और भोग्य ) बिल्कुल पृथक् हैं । परन्तु दोनों का अभेद ग्रहण कर लेने पर आपसी धर्मो का अध्यास होता है जिसमें भोग ( Enjoyment ) होता है । ]
जो पुरुष सुख से अभिज़ है वह सुख का स्मरण करके सुख के साधनों की प्राप्ति के लिए तृष्णा करता है— उसकी उक्त प्रतीक्षा ही राग है । [ गर्धः = प्रतीक्षा, तृष्णा, आशा, Vगृध् । तुल० 'मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ' ( ईशो० १1१ ) ] | दुःख से परिचित पुरुष दुःख का स्मरण करके जब दुःख के साधनों से निवृत्त होता है वही द्वेष है । ऐसा ही पतञ्जलि ने कहा है- 'सुख में निवास करनेवाला ( अनुशयी ) राग है' ( यो० सू० २१७ ) तथा 'दुःख में निवास करनेवाला द्वेष है' ( यो० सू० २१८ ) ।
( १३. 'अनुशयी शब्द की सिद्धि में व्याकरण का योग )
किमत्रानुशयिशब्दे ताच्छील्यार्थे णिनिरिनिर्वा मत्वर्थीयोऽभिमतः ? नाद्य: । 'सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये' ( पाणिनि सू० ३।२।७८ ) इत्यत्र सुपीति वर्तमाने पुनः सुग्रहणस्योपसर्गनिवृत्त्यर्थत्वेन सोपसर्गाद्धातोणिनेरनुत्पत्तेः । यथाकथंचित् तदङ्गीकारेऽपि 'अचो ञ्णिति' (पाणि० सू० ७२।११५ ) इति वृद्धिप्रसक्तावतिशाय्यादिपदवत् अनुशायिपदस्य प्रयोगप्रसङ्गात् ।
यहाँ पर प्रश्न है कि 'अनुशयिन' शब्द की सिद्धि कैसे होती है— क्या ताच्छील्य के अर्थ में ( सुखमनुशेते, तच्छील: सुखानुशयी ) णिनि प्रत्यय हुआ है ( अनु + √ शीङ् + णिनि ) अथवा मतुप् ( वह उसका है - सः अस्य अस्ति ) के अर्थ में ( सुख का अनुशय अर्थात् सम्बन्ध; वह जिसके पास है - सुखानुशयी ) इनि प्रत्यय हुआ है ( अनुशय + इनि – 'अत इनिठनौ' पा० सू० ५।२।११५ ) ?