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सर्वदर्शनसंग्रहे
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९. स्थानाद्बीजादुपष्टम्भान्निष्यन्दान्निधनादपि । कायमाधयशौचत्वात्पण्डिता ह्यशुचि विदुः ॥ इति ।
इसी अभिप्राय से कहा गया है- 'अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा में क्रमशः नित्य, शुचि, सुख और आत्मा का ज्ञान करना अविद्या है' ( पात० यो० सू० २२५ ) । जहाँ कोई वस्तु नहीं है, वहाँ उस वस्तु का ज्ञान होना विपर्यय है - यही कहने का अभिप्राय है ( देखिये यो० सू० १1८ ) । [ अविद्या के ये चार अवान्तर भेद बतलाये जा रहे हैंअति में नित्य का ज्ञान, अपवित्र में पवित्र का, दुःख में सुख का तथा अनात्मा में आत्मा का । इसका उलटा भी सम्भव है - नित्य में अनित्य का आदि । वस्तुतः ये उपलक्षण हैं। इसी से पाप में पुण्य का ज्ञान आदि भी अविद्या ही है अविद्या को विपर्यय भी कहते हैं, क्योंकि दोनों में ही मिथ्याज्ञान होता है ।
वह (विद्या) इस प्रकार है - घटादि अनित्य पदार्थों के नित्य होने का विश्वास रखना, शरीर आदि अपवित्र पदार्थों को पवित्र समझना । [ अपवित्र पदार्थों की सूची इस तरह है--'स्थान के कारण ( मुत्रादि से युक्त माता के उदर से उत्पन्न होना ), बीज ( शुक्र और रक्तरूपी आदान कारण ) के कारण, पोषक पदार्थ ( भुक्त अन्न और पीत रसादि) के कारण, निःसृत पदार्थ ( Excretion, पसीना, मल, मूत्रादि ) के कारण तथा मृत्यु होने के कारण लोग शरीर को अपवित्र कहते हैं और इसलिए [ स्नानादि के द्वारा ] शरीर में शौच ( पवित्रता ) का आधान करते हैं । [ ये कारण ऐसे हैं जो वेदपाठियों के शरीर को भी अपवित्र करते हैं अतः शौच का प्रयोग लोग करते हैं । ]
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'परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्त्यविरोधाच्च' दुःखमेव सर्वं विवेकिनः '' ( पात० यो० सू० २११५ ) इति न्यायेन दुःखे स्रक्चन्दनवनितादौ सुखत्वारोपः । अनात्मनि देहादावात्मबुद्धिः । तदुक्तम् -
१०. अनात्मनि च देहादावात्मबुद्धिस्तु देहिनाम् ।
अविद्या तत्कृत बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते ॥ इति ।
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'चूंकि परिणाम दुःख, ताप दुःख और संस्कार - दुःख बना रहता है और साथ-साथ [ सच्चादि तीन ] गुणों की वृत्ति बिना विरोध सर्वत्र होती है इसलिए विवेकशील पुरुषों के लिए सब कुछ दुःख ही दुःख है' ( यो० सू० २।१५ ) । [ सामान्य व्यवहार में जो मुसद पदार्थ हैं विवेक के लिए वे दुःखद हैं क्योंकि वह उन्हें विष मिले हुए स्वादिष्ट अन्न के समान समझता है | जो सुख ऊपर से मिल रहा है वह तीन प्रकार के दुःखों का कारण बन जा सकता है । गुल का उपभोग करने से इन्द्रियाँ थक जाती हैं जिससे अन्त में दुःख उत्पन्न होता है, जिसे परिणाम - दुःख कहते हैं । सुखोपभोग के समय दूसरों को अधिक १. बो० सू० में वृत्तिविरोधाच्च' पाठ है । अभ्यंकर ने मूलस्थ पाठ रखकर संगति
बैठायी है ।