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पातञ्जल-दर्शनम् ८. वृद्धप्रयोगगम्यो हि शब्दार्थः सर्व एव नः ।
तेन यत्र प्रयुक्तो यो न तस्मादपनीयते ॥ इति । वह भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि पर्युदास-शक्ति का सहारा लेकर 'अविद्या' शब्द के द्वारा, विद्या के विरुद्ध रहनेवाले विपर्ययज्ञान (मिथ्याज्ञान ) का अर्थ पुराने लोग स्वीकार करते हैं। [ निषेध की दो दशाएं हैं--प्रसज्य और पर्युदास । प्रसज्य प्रतिषेध में निषेध की प्रधानता रहती है, जैसे-अमक्षिकं वर्तते = यहां मक्खी तक नही है, न पठति आदि । पर्युदास प्रतिषेध में भावात्मक पदार्थ की प्रधानता होती है । इससे सदृश वस्तु का ग्रहण होता है-'अब्राह्मणो धावति' कहने पर, 'ब्राह्मण के सदृश कोई दूसरा व्यक्ति दौड़ रहा है' यह भावात्मक ( Positive ) अर्थ होता है । 'अविद्या' का अर्थ भी विद्या का अभाव' (प्रसज्य ) न होकर 'मिथ्याज्ञान' ( पर्युदास ) है। ऐसा ही अर्थ प्राचीन आचार्यों ने किया है। ] ___ इसे कहा है-'नाम ( संज्ञा ) और धातु के अर्थ से सम्बद्ध होने पर नञ् निषेध नहीं करता। [लिङ् आदि प्रत्ययों के अर्थ से संयुक्त होने पर ही यह निषेध होता है। इसे 'प्रसज्य' कहते हैं-प्रसज्यप्रतिषेधोऽयं क्रियया सह यत्र नञ् । जहाँ नञ् निषेध नहीं करता वहाँ वह पर्युदास अर्थात् भेद का निर्देश करता है । ] 'अब्राह्मण' शब्द में न केवल अन्य ( ब्राह्मणभिन्न पुरुष ) का तथा 'अधर्म' शब्द में [ धर्म के ] विरोधी अर्थ का निर्देश करता है । ॥७॥ हम लोगों को सारा शब्दार्थ वृद्ध (प्राचीन) पुरुषों के प्रयोग से जानना चाहिए । वृद्ध ने किसी शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया है वह शब्द उस अर्थ से पृथक् नहीं किया जाता ॥८॥ ____ वाचस्पतिमिश्ररप्युक्तं-लोकाधीनावधारणो हि शब्दार्थयोः सम्बन्धः। लोके चोत्तरपदार्थप्रधानस्यापि नत्र उत्तरपदाभिधेयोपमर्दकस्य तद्विरुद्वतया तत्र तत्रोपलब्धेरिहापि तद्विरुद्ध प्रवृत्तिरिति । ____वाचस्पति मिश्र ने भी कहा है ( त० वै० २।५ )-'शब्द और उसके अर्थ का सम्बन्ध लोक-प्रयोग के आधार पर ही निश्चित किया जाता है । लौकिक प्रयोग में [ तत्पुरुष समास में ] यद्यपि उत्तर पदार्थ की प्रधानता रहती है किन्तु नञ् तत्पुरुष तो उत्तर पद के अर्थ ( अभिधेय ) का उपमर्दन ( अर्थात् पर्युदास भेद ) करके उस ( उत्तर पद के अर्थ ) के विरुद्ध रूप में सर्वत्र पाया जाता है। इसलिए यहाँ ( 'अविद्या' शब्द में ) भी [ नञ् अपने उत्तरपदार्थ-विद्या के ] विरुद्ध ही प्रवृत्त हो सकता है।' [ अविद्या = विद्या के विरुद्धमिथ्याज्ञान । ]
एतदेवाभिप्रेत्योक्तम्-'अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या' (पा० यो० सू० २१५) इति। अतस्मिस्तबुद्धिविपर्यय इत्युक्तं भवति। तद्यथा-अनित्ये घटादौ नित्यत्वाभिमानः। अशुचौ कायादौ शुचित्वप्रत्ययः।
३८ स० सं०