________________
५९८
सर्वदर्शनसंग्रहेशयिशब्दो दुरुपपाद इति चेत्-नेतद् भद्रम् । भावानवबोधात् । प्रायिकाभिप्रायमिदं वचनम् ।
द्वितीय विकल्प ( इनि प्रत्यय तद्धित का मानें तो ) भी ठीक नहीं । कारण यह है कि निम्नलिखित कारिका के द्वारा इसका निषेध किया गया है-ये दोनों प्रत्यय ( इन = इन् तथा ठन् = इक; उदाहरण-दण्डी, दण्डिकः ) एकाक्षर शब्द के बाद, कृदन्त शब्द के बाद, जातिवाचक शब्द के बाद तथा सप्तमी के अर्थ में नहीं होते हैं' [ यह कारिका ( ५।।११५. ) में उद्धृत है तथा वहाँ उसकी व्याख्या भी की गई है। मतुप के अर्थ में होने वाले इन् और ठन् प्रत्ययों का वहाँ निषेध किया गया है । एकाक्षर शब्द से-स्ववान् । खवान् । कृदन्त से-कारकवान् । जाति से-व्याघ्रवान् । सिंहवान् । सप्तमी के अर्थ में( दण्डा: अस्यां सन्नि इति ) दण्डवती शाला । ] चूंकि अनुशय शब्द कृदन्त ( अनु + शी + अच् –'एरच्' ३।३।५६ ) है क्योंकि अच् प्रत्यय से बना है [ अतः उसमें इनि प्रत्यय नहीं हो सकतः । ], इसलिए 'अनुशयी' शब्द की उपपत्ति कठिन है। [ अनुशायी या अनुशयवान बनाने में कोई आपत्ति नहीं है । ]
किन्न इस तरह सन्देह करना उचित नहीं है, क्योंकि आप लोग कारिका का भाव नहीं समझते हैं । यह कारिकास्थ वाक्य 'प्रायः ऐसा होता है' इसी अभिप्राय से दिया गया है ।
अत एवोक्तं वृत्तिकारेण-इतिकरणो विवक्षार्थः सर्वत्राभिसम्बध्यते इति । तेन क्वचिद् भवति-कार्यो कायिकस्तण्डुली तण्डुलिकः इति । तथा च दन्ताज्जातेश्च प्रतिषेधस्य प्रायिकत्वम् । अनुशयशब्दस्य कृदन्ततया इनेरुपपतिरिति सिद्धम् ।
इसलिए ही काशिकावृत्ति के रचयिता ( जयादित्य ) ने कहा है-'[ तदस्यास्त्यस्मिन्निति मनुम् ( पा० सू० ५।२।९४ ) में' ] इति शब्द विवक्षा का निर्देशक है और बाद के गभी सूत्रों में लगाया जाता है। [विवक्षा = लौकिक प्रयोग के अनुसार प्रत्ययों का विधान ] । इसलिए कहीं-कहीं होते हैं-कार्य ( कृ+ ण्यत् कृदन्त प्रत्यय ) + इनि = कायिन् । कार्य + ठन् = कार्यिक । तण्डुल ( जाति ) + इनि = तण्डुलिन् । तण्डुल+ठन्= नगडुलिक ।' उससे पता लगता है कृदन्न और जातिवाचक से यह निषेध प्रायिक ( वैकल्पिक, विवक्षाधीन ) हैं। अनुशय शब्द कृदन्त है अतः इससे इनि प्रत्यय हो सकता है ---यह सिद्ध हुआ।
( १४ अभिनिवेश का निरूपण ) पूर्वजन्मानुभूतमरणदुःखानुभववासनाबलात्सर्वस्य प्राणभृन्मात्रस्या कृमेश च विदुषः संजायमानः शरीरविषयादेर्मम वियोगो मा भूदिति प्रत्यहं निमित्तं विना प्रवर्तमानो भयरूपोऽभिनिवेशः पञ्चमः क्लेशः। मा न भूवं हि भूयासमिति प्रार्थनायाः प्रत्यात्ममनुभवसिद्धत्वात् । तदाह-'स्वरस