________________
पातञ्जल-दर्शनम्
५९५ मात्रा में सुख का उपभोग करते देखकर ईर्ष्या होती है इसे तापदुःख कहते हैं । सुखभोग के संस्कार चित्त पर पड़ जाते हैं, हम उनका स्मरण करके उन्हें पाने का प्रयत्न करते हैं । उसके साधन यदि नहीं मिले तो दुःख होता है जिसे संस्कारदुःख कहते हैं। यही नहीं, सत्त्वादि गुणों की वृत्तियाँ ( = सुख, दुःख और मोह ) किसी तरह का विरोध किये बिना ही आपस में मिलती हैं । इसलिए, सुख के साधन के रूप में स्वीकृत पदार्थ ( वस्तु ) में रजोगुण की वृत्ति ( दुःख ) रहेगी ही। दोनों में कोई विरोध तो है नहीं । इसलिए विवेकी पुरुष भोग के सभी साधनों को दुःख ही समझते हैं । ] __इस नियम से [ अविद्या के कारण ] लोग माला, चन्दन, वेश्या आदि वस्तुत: दु:खद पदार्थों में सुख का आरोप करते हैं । [ यह अविद्या है । ] फिर, देहादि जो आत्मा नहीं है, उसे आत्मा समझना [ भी अविद्या ही है। इसे कहा है-'देह आदि आत्मा नहीं हैं किन्तु उन्हें देहधारी लोग जब आत्मा समझते हैं तो यही अविद्या है । इसी के कारण संसार का बन्धन होता है और उसका नाश मोक्ष कहलाता है ॥ १० ॥' ___एवमियमविद्या चतुष्पदा भवति। नन्वेतेषु अविद्याविशेषेषु किंचिदनुगतं सामान्यलक्षणं वर्णनीयम् । अन्यथा विशेषस्यासिद्धः। तथा चोक्तं भट्टाचार्य:
११. सामान्यलक्षणं मुक्त्वा विशेषस्यैव लक्षणम् ।
न शक्यं केवलं वक्तुमतोऽप्यस्य न वाच्यता ॥ इति । तदपि न वाच्यम् । अतस्मिस्तबुद्धिरिति सामान्यलक्षणाभिधानेन दत्तोत्तरत्वात् ।
इस प्रकार यह अविद्या चार प्रकार की है । अब कोई पूछ सकता है कि अविद्या के इन भेदों में अनुगत (विद्यमान ) कोई सामान्य लक्षण दें। जिससे अविद्या का लक्षण हम जान सकें ] । यदि ऐसा नहीं करेंगे तो अविद्या के भेदों की ही सिद्धि नहीं होगी । जैसा कि [ कुमारिल ] भट्ट ने कहा है-'सामान्य लक्षण को छोड़कर केवल विशेष (भेदों ) का ही निरूपण कर देना सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ पर [ अविद्या के ] भेदों का वर्णन भी नहीं किया जा सकता ॥ ११॥
ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि [ अविद्या का ] सामान्य लक्षण भी किया गया है-'जहाँ वस्तु नहीं है, वहां पर उसका ज्ञान कर लेना [ अविद्या है ]' । इस लक्षण के द्वारा उत्तर मिल जाता है।
( १२. अस्मिता, राग और द्वेष ) सत्त्वपुरुषयोरहमस्मीत्येकताभिमानोऽस्मिता। तदप्युक्तं-'दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता' (पात० यो० सू० २।६ ) इति । सुखाभिज्ञस्य सुखानुस्मृतिपूर्वकः सुखसाधनेषु तृष्णारूपो ग? रागः। दुःखाभिज्ञस्य