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सर्वदर्शनसंग्रहे
चित- घटादि । घटादि पदार्थों का ज्ञान तभी हो सकता है जब इन्द्रिय-संयोग, प्रकाश आदि साधन विद्यमान हों। यदि साधन ही न रहें तो ये विद्यमान रहने पर भी अज्ञात पदार्थ ही रहेंगे । यह तो हुआ चित्त और घटादि का सम्बन्ध | चित्-शक्ति और चित्त में ऐसा सम्बन्ध नहीं है । ऐसा नहीं होता कि चित्तवृत्ति विद्यमान होने पर भी अज्ञात रहे । वृत्ति में अज्ञात सत्ता हो नहीं सकती । नहीं तो विद्यमान रहने पर भी चित्तवृत्ति की अज्ञात अवस्था में निम्नलिखित संशय होते ही रहते - 'मैं सुखी नहीं या मैं दुःखी नहीं' इत्यादि । इसीलिए चित्तवृत्ति सदा ज्ञात रहती है और चित्-शक्ति जिस समय चित्तवृत्ति का साक्षात्कार करती है उस समय अपरिणामी ही रहती है । यदि चित्त की तरह ही चित्-शक्ति में भी परिणाम मानेंगे तब तो चूँकि परिणाम कार्य है, इसलिए कभी होगा कभी नहीं, फलतः चित्तवृत्ति सदा ज्ञात नहीं हो सकेगी ।
अब ज्ञान की प्रक्रिया पर भी विचार कर लें । विषयों का ज्ञान जब चित्तवृत्ति के द्वारा होता है तब विषय अपने आकार का समर्पण चित्तवृत्ति में कर देते हैं । किन्तु जब चित्तवृत्ति का ज्ञान चित्-शक्ति के द्वारा होता है तब वृत्ति चित्-शक्ति में केवल प्रतिबिम्बित ही होती है । जब बुद्धि को वृत्ति विद्यमान रहेगी तब प्रतिबिम्बन क्रिया अनिवार्य है । अतएव आत्मा ( चित्-शक्ति) ज्ञाता के रूप में सदा अवस्थित रहती है । निष्कर्ष यह है कि चित्तवृत्ति सदा ज्ञात होती रहती है और चित्-शक्ति सदा ज्ञाता बनी रहती है | अतः चित्शक्ति अपरिणामी ही रहती है । आगे इसे मूल में ही स्पष्ट करेंगे ।
उपर्युक्त अनुमान में दृष्टान्त व्यतिरेक - विधि का दिया गया है, क्योंकि अन्वय-विधि में मिलना ही सम्भव नहीं था ।
तथा यद्यसौ पुरुष: परिणामी स्यात्तदा परिणामस्य कादाचित्कत्वातासां चित्तवृत्तीनां सदा ज्ञातत्वं नोपपद्येत । चिद्रूपस्य पुरुषस्य सदेवाधिष्ठातृत्वेनावस्थितस्य यदन्तरङ्गं निर्मलं सत्त्वं तस्यापि सदेव स्थितत्वात् । येन येनार्थेनोपरक्तं भवति तस्य दृश्यस्य सदव चिच्छायापत्त्या भानोपपत्त्या पुरुषस्य निःसङ्गत्वं सम्भवति ।
ऐसी स्थिति में यदि वह पुरुष ( आत्मा ) परिणामी होता तो चूंकि परिणाम कभी - कभी हुआ करता है, इसलिए चित्त की वृत्तियाँ भी सदा ज्ञात नहीं हो सकतीं । चित्-शक्ति के रूप में जो पुरुष है वह अधिष्ठाता के रूप में सदा ही अवस्थित रहता है । उसके अन्तरङ्ग में निर्मल सत्ता की भी स्थिति सदा रहती है । जिस-जिस अर्थ ( वस्तु ) के साथ [ चित्त ] उपरक्त होता है उस दृश्य वस्तु की छाया चित - शक्ति ( आत्मा ) पर पड़ती है तथा प्रतीति होती है- - इस प्रकार पुरुष की निःसंगता सम्भव है ।
ततश्च सिद्धं तस्य सदा ज्ञातृत्वमिति न कदाचित्परिणामित्वशङ्कावतरति । चित्तं पुनर्येन विषयेणोपरक्तं भवति स विषयो ज्ञातः, येनोपरक्तं न