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- सर्वदर्शनसंग्रहेतथा शब्द और उनके अर्थ के उल्लेख की एकता दिखाते हुए कोई भावना प्रवृत्त होती है। [वितर्क = स्थूल वस्तुओं का साक्षात्कार । इस साक्षात्कार की उत्पत्ति उस भावना से होती है जिसमें पहले सामान्य तब विशेष' या 'पहले धर्मी तब धर्म' इस प्रकार पूर्वापर का क्रम खोजा जाता है। शरीर और इन्द्रियों में जो गुण-दोष पहले से गुने गये हैं उन्हीं में यह क्रम खोजते हैं । यदि कोई विशेष पहले से सुने गये नहीं हों, तब भी कोई बात नहीं-योग-बल से भावना के बिना भी साक्षात्कार हो जायगा । योगसूत्र में कहा गया है-तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का ( ११४२ ) अर्थात् शब्द, अर्थ और ज्ञान के भेदों से मिली हुई ( तीनों भिन्न पदार्थों की जिसमें अभेद-प्रतीति हो ) सवितर्क समापत्ति होती है । सवितर्क में शब्द, अर्थ और ज्ञान का भेद बना ही रहता है कि यह गौ शब्द है, उसका यह अर्थ है तथा उन दोनों को प्रकाशित करनेवाला एक ज्ञान है। इनमें स्थूल पदार्थों का ही ग्रहण होता है। ]
(२) सविचार वह समाधि है जब तन्मात्र ( रूप, रस आदि ) तथा अन्तःकरण, इन सूक्ष्म पदार्थों को विषय बनाकर देश, काल आदि ( = निमित्त ) के विचार से मिलकर भावना उत्पन्न हुई हो । [ देश, काल और कार्य कारण का अनुभव रखते हुए सूक्ष्म तन्त्रात्रों में शब्दादि भेदों से मिश्रित समापत्ति सविचार है । कार्य-कारण का अनुभव इस रूप में होता है-सूक्ष्म पृथिवी का कारण हैं गन्धतन्मात्र-प्रधान पाँच तन्मात्र, इत्यादि । ]
विशेष-स्थूल पदार्थ-विषयक साक्षात्कार के सवितर्क और निर्वितर्क दो भेद हैं जबकि सविचार और निर्विचार सूक्ष्म-पदार्थविषयक साक्षात्कार के भेद हैं । विशेष विवरण के लिए देखें-योगसूत्र ( १।४२-४४ )।
यदा रजस्तमोलेशानुविद्धं चित्त भाव्यते तदा सुखप्रकाशमयस्य सत्त्वस्योद्रेकासानन्दः । यदा रजस्तमोलेशानभिभूतं शुद्धं सत्त्वमालम्बनीकृत्य या प्रवर्तते भावना तदा तस्यां सत्त्वस्य न्यग्भावाच्चितिशक्तरुद्रेकाच्च सत्तामात्रावशेषत्वेन सास्मितः समाधिः । तदुक्तं पतञ्जलिना-वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञातः ( पात० यो० सू० १।१७) इति।
(३ ) जब रजोगुण और तमोगुण के लेशमात्र अंश से युक्त चित्त की भावना की जाती है तब सुख और प्रकाश से निमित्त सत्त्व का उद्रेक होता है-यही सानन्द समाधि है। [ इस अवस्था में सत्त्व प्रबल रहता है और चिति-शक्ति दबी हुई रहती है । जिस प्रकार काल्पनिक राज्य में विचरण करते हुए ( Day dream या दिवास्वप्न देखते हुए ) मनुष्य को आनन्द आता है वही आनन्द इस समाधि में भी है । दुःख और मोह लेशमात्र रहते हैं, सुख ( सत्त्व ) प्रचुर मात्रा में रहता है । ]
(४) जब रजोगुण और तमोगुण का लेश भी न रहे, वैसे शुद्ध सत्त्वगुण पर आधारित होकर भावना उत्पन्न हो तब उस सत्त्व के भी दब जाने से तथा चिति-शक्ति के उद्रेक