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सर्वदर्शनसंग्रहेप्रारम्भार्थः परिगृहीतः, यथा च 'अथ शब्दानुशासनम्' (पात० मा०११) इत्यत्राथशब्दो व्याकरणशास्त्राधिकारार्थस्तद्वत् । ..
इसलिए अब परिशेष-नियम से ( कोई दूसरा विकल्प न मिलने से ) 'अर्थ' शब्द का अर्थ प्रारम्भ है जिसे 'अधिकार' शब्द के द्वारा भी समझते हैं-भाष्यकार ( व्यास ) ने इसे स्पष्ट किया है । जैसे—'अब ( अथ ) यह ज्योति-यज्ञ है, अब यह विश्व ज्योति-यज्ञ है' ( ताण्डय ब्राह्मण १६८१, १६।१०।१ )-यहां पर प्रयुक्त 'अथ' शब्द विशेष क्रतु ( यज्ञ ) को प्रारम्भ करने के अर्थ में लिया गया है। उसी प्रकार जैसे 'अब ( अथ ) शब्दानुशासन होता है' ( महाभाष्य का प्रथम वाक्य )-यहां भी 'अथ' शब्द व्याकरणशास्त्र के आरम्भ के अर्थ में आया है वैसे ही [ प्रस्तुत प्रसंग में भी समझें।] ___ तदभाषि व्यासभाष्ये योगसूत्रविवरणपरे अथेत्ययमधिकारार्थः प्रयुज्यते इति । तद् व्याचल्यो वाचस्पतिः। तदित्थम्-अमुष्याथशब्दस्याधिकारार्थत्वपक्षे शास्त्रेण प्रस्तूयमानस्य योगस्योपवर्तनात्समस्तशास्त्रतात्पर्यार्थव्याख्यानेन शिष्यस्य सुखावबोधप्रवृत्तिर्भवतीत्यथशब्दस्याधिकारार्थत्वमुपपन्नम्।
योगसूत्र का विवरण ( व्याख्या ) करनेवाले व्यासभाष्य में भी कहा गया है कि 'अथ' शब्द अधिकार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । [ व्यास को इस पंक्ति की ] व्याख्या वाचस्पति ने [ अपनी तत्त्ववैशारदी टीका में ] में की है। वह इस प्रकार है-इस अथ शब्द को अधिकार के अर्थ में ले लेने पर शास्त्र के द्वारा प्रस्तुत किये जानेवाले योग का प्रतिपादन ( उपवर्तन ) करना सम्भव है । पूरे शास्त्र के तात्पर्यार्थ की व्याख्या करने से शिष्य में सरलता से समझने की प्रवृत्ति होगी, इसलिए 'अथ' शब्द अधिकार के अर्थ में हुआ है, यह सिद्ध हआ। [हम ऊपर देख चुके हैं कि 'अथ' का अर्थ 'आनन्तर्य' लेने पर इसका उपयोग न तो श्रोता के बोध के लिए है और न उसकी प्रवृत्ति के लिए । ऐसी बात 'अधिकार' अर्थ लेने पर नहीं होती । योगशास्त्र का आरम्भ हो रहा है जिसमें सभी शास्त्रों के तात्पर्यार्थ की विवृति हुई है-इस शास्त्र की सहायता से इसका बोध आसानी से श्रोताओं को हो जायगा । यही नहीं सामान्य ज्ञान हो जाने पर विशेषतः शास्त्रावलोकन की प्रवृत्ति भो होगी। इसलिए अथ का यही अर्थ सर्वथा समीचीन है।]
ननु 'हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः' इति याज्ञवल्क्यस्मृतेः पतञ्जलिः कथं योगस्य शासितेति-अद्धा। अत एव तत्र तत्र पुराणादो विशिष्य योगस्य विप्रकीर्णतया दुर्गाह्यार्थत्वं मन्यमानेन भगवता कृपासिन्धुना फणिपतिना सारं संजिघाणानुशासनमारब्धं न तु साक्षाच्छासनम् । यदायमथशब्दोऽधिकारार्थस्तदेवं वाक्यार्थः सम्पद्यते-योगानुशासनं शास्त्रमधिकृतं वेवितव्यमिति। तस्मादयमथशब्दोऽधिकारद्योतको मङ्गलार्थश्चेति सिद्धम् ।