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पातम्जलमार्शनम्
५७१ अब प्रश्न हो सकता है कि 'योग के वक्ता हिरण्यगर्भ हैं, कोई दूसरे पुरातन ऋषि नहीं ऐसा याज्ञवल्क्य-स्मृति में कहा गया है तो पतञ्जलि को योग का शास्त्रकार क्यों मानते हैं ? ठीक है इसीलिए तो, जहाँ-तहाँ पुराण आदि में योग की विवेचना विशिष्ट रूप से [ एक स्थान पर नहीं होकर ] बिखरी हुई होने के कारण, समझने में कठिन जानकर, कृपा के सागर भगवान् शेषनाग [ के अवतार पतञ्जलि ] ने, उस योग का सारांश ग्रहण करने की इच्छा से अनुशासन (प्रथम प्रकाशन के पश्चात उसका संकलन ) किया है, साक्षात् शासन ( नये शास्त्र की रचना ) नहीं । [ पुराणों में प्रसंग के अनुसार जहां-तहां योग के खण्डों का ही वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ विष्णुपुराण ( ६७ ), गरुड़-पुराण (अध्याय १४ तया ४९), मार्कण्डेय पुराण ( अध्याय ३९) तथा लिंगपुराण ( अध्याय ९) में योग का प्रतिपादन हुआ है, पर कहीं पूर्ण वर्णन नहीं । इसीलिए उन सभी स्थानों का सार ग्रहण करके पतञ्जलि ने योगशास्त्र लिखा-प्रथम शासन नहीं है यह अनुशासन है।]
यह 'अथ' शब्द जब अधिकार के अर्थ में लिया जाता है तब वाक्यार्थ इस तरह सम्पन्न होता है-योगानुशासन नाम के शास्त्र का आरम्भ हो गया, ऐसा समझें। इसलिए 'अथ' शब्द अधिकार का द्योतक है और मङ्गल का प्रयोजन रखता है-यह सिद्ध हुआ ।
(५. योग के चार अनुबन्ध ) तत्र शास्त्रे व्युत्पाद्यमानतया योगः ससाधनः सफलो विषयः । तव्युत्पादनमवान्तरफलम् । व्युत्पादितस्य योगस्य कैवल्यं परमप्रयोजनम् । शास्त्रयोगयोः प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावलक्षणः सम्बन्धः। योगस्य कैवल्यस्य च साध्यसाधनभावलक्षणः सम्बन्धः । स च श्रत्यादिप्रसिद्ध इति प्रागेवावादिषम् । मोक्षमपेक्षमाणा एवाधिकारिण इत्यर्थसिद्धम् । ___ इस शास्त्र में व्युत्पादित (प्रतिपादित ) होने के कारण, साधनों और फलों के सहित योग ( चित्तवृत्ति का निरोध ) ही इसका विषय है। योग का प्रतिपादन करना गौण फल ( प्रयोजन ) है जब कि प्रतिपादित किये गये योग का परम प्रयोजन केवल्य (मोक्ष) है। शास्त्र और योग के बीच में एक प्रतिपादक है दूसरा प्रतिपाद्य-यही सम्बन्ध है। योग और केवल्य के बीच में एक साधन है दूसरा साध्य, ऐसा सम्बन्ध है । मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यह ( सम्बन्ध ) श्रुति, स्मृति आदि में प्रसिद्ध है। यह तो अर्थ से ही सिद्ध है कि इसके अधिकारी वे ही लोग हैं जो मोक्ष की अपेक्षा करते हैं । [ यदि 'अर्थ' शब्द का अर्थ आनन्तर्य होता तो शमादि साधनों से युक्त पुरुषों को अधिकारी मानना पड़ता है। किन्तु यहाँ योग का फल मोक्ष का स्वीकार करके–'अध्यात्मयोगाधिगमेन' के आधार परमोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी मानते हैं । अब यह दिखलाते हैं कि 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में अधिकारी की सिद्धि अर्थ से ही क्यों नहीं होती, अलग से अधिकारी का निरूपण करने की क्या आवश्यकता है ?