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पातञ्चल-दर्शनम्
साथ इसकी संगति अनुमान से ऐसा अर्थ तीत होता है । उस
केबल से ही 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में मोक्ष के वाक्यों के बेठायी जाती है अर्थात 'ब्रह्मजिज्ञासा मोक्ष का साधन है' लिंग से मुमुक्षु व्यक्ति को 'ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए' ऐसा शब्द मालूम होता है । इस प्रकार प्रकरण के बाद वाक्य और तब लिंग और उसके अनन्तर शब्द - इस रूप में अधिकारी की प्राप्ति बहुत विलम्ब से होती है। यदि दूसरी ओर, अथ का अर्थ 'आनन्तर्य' लें तब तो अथ शब्द के अर्थ के बल से ( श्रुति से ) ही अधिकारी की प्रतीति हो जाती है कि साधन-चतुष्टय से सम्पन्न व्यक्ति ही अधिकारी हो सकता है । अभिप्राय यह है कि योगसूत्र के 'अथ' और ब्रह्मसूत्र के 'अथ' के पृथक्-पृथक् अर्थ हैं, क्योंकि दोनों की परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न हैं । ]
इसके अतिरिक्त यह पूछा जाय कि श्रुति से अर्थ-बोध होने पर प्रकरण आदि से उसके ( श्रुति के अर्थ के ) विरुद्ध अर्थ की प्रतीति होती है या अविरुद्ध अर्थ की ? विरुद्ध अर्थ- प्रतीति तो नहीं हो सकती, क्योंकि जो विरुद्ध अर्थ का बोध करावेगा वह प्रकरणादि बाधित ( खण्डित ) हो जायेगा । यदि अविरुद्ध अर्थ की प्रतीति होती हो तब तो वह व्यर्थ ही हो जायगा । इसे कहा भी है 'श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्याइनका एक स्थान पर संघर्ष उत्पन्न होने पर क्रम में पीछे आनेवाला प्रमाण दुर्बल पड़ता है, क्योंकि उसमें अर्थ बहुत दूर पड़ जाता है' ( मी० सू० ३।३।१४ ) |
३. बाधिकैव श्रुतिर्नित्यं समाख्या बाध्यते सदा । मध्यमानां तु बाध्यत्वं बाधकत्वमपेक्षया ॥ इति च । तस्माद्विषयादिमत्त्वात् ब्रह्मविचारकशास्त्रवद्योगानुशासनमा रम्भणीयमिति स्थितम् ।
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निर्णय इस प्रकार है - ] श्रुति केवल पहले कोई प्रमाण नहीं होता ) । क्योंकि इसके बाद कोई प्रमाण नहीं
[ उक्त छह प्रमाणों में बाध्यबाधक सम्बन्ध का बाधक बन सकती है, ( बाध्य नहीं, क्योंकि इसके समाख्या केवल बाध्य बन सकती है, ( बाधक नहीं, होता ) । बीच के प्रमाण [ अपने पूर्व क्रम के प्रमाणों के से बाध्य होते हैं या [ अपने बाद के क्रम के प्रमाणों के भी होते हैं ।
इस प्रकार इस [ पूरे विवेचन ] के पश्चात् यह सिद्ध हुआ कि विषय आदि अनुबन्धों से युक्त होने के कारण, ब्रह्म का विचार करनेवाले ( वेदान्त ) शास्त्र की तरह, योगानुशासन ( योगशास्त्र ) का भी आरम्भ करना चाहिए ।
साथ संघर्ष होने पर ] अपेक्षा साथ संघर्ष होने पर ] बाधक
( ६. योग और शास्त्र में सम्बन्ध )
ननु व्यत्पाद्यमानतया योग एवात्र प्रस्तुतो न शास्त्रमिति चेत् — सत्यम् । प्रतिपाद्यतया योगः प्राधान्येन प्रस्तुतः स च तद्विषयेण शास्त्रेण