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सर्वदर्शनसंग्रहे
प्रतिपाद्यत इति तत्प्रतिपादने करणं शास्त्रम् । करणगोचरश्च कर्तृव्यापारो न कर्मगोचरतामाचरति ।
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[ अभी भी कोई शंका कर सकता है कि ] उत्पन्न करने की वस्तु तो योग है अतः योग ही यहाँ पर प्रस्तुत है न कि शास्त्र । [ उत्तर में कहेंगे कि ] बात ठीक है । प्रतिपाद्य होने के कारण प्रधान रूप से योग ही प्रस्तुत हो रहा है लेकिन उसका प्रतिपादन योगंविषयक शास्त्र से होता है, अतः योग के प्रतिपादन में करण ( साधन ) का काम शास्त्र ही करता है । यह सामान्य नियम है कि कर्ता का व्यापार (क्रिया) करण से ही अधिक सम्बन्ध रखता है, कर्म से नहीं ।
यथा छेत्तुर्देवदत्तस्य व्यापारभूतमुद्यमननिपातादिकर्म करणभूतपरशुगोचरं न कर्मभूतवृक्षादिगोचरम् । तथा च वक्तुः पतञ्जलेः प्रवचनव्यापारापेक्षया योगविषयस्याधिकृतता करणस्य शास्त्रस्य । अभिधानव्यापारापेक्षया तू योगस्यंवेति विभागः । ततश्च योगशास्त्रस्यारम्भः सम्भावनां भजते ।
जैसे वृक्ष को काटनेवाले देवदत्त का व्यापार अर्थात् [ कुल्हाड़ी ] ऊपर उठाना, गिराना आदि कार्य ( क्रियाएँ ) परशु ( कुल्हाड़ी ) रूपी करण से सम्बद्ध है, वृक्षादि रूपी कर्म से नहीं । उसी प्रकार यहाँ पर वक्ता पतञ्जलि का प्रवचनरूपी व्यापार ( क्रिया ) हो रहा है । जिसका विषय योग है ऐसे करण-स्वरूप शास्त्र का ही आरम्भ उस व्यापार के द्वारा अपेक्षित है । [ 'पतञ्जलि: योगं शास्त्रेण प्रवक्ति' इस वाक्य से ही मालूम हो जायगा कि कौन किस कारक में है । इसीलिए कर्म की अपेक्षा करण की प्रधानता होने के कारण, शास्त्र का ही सम्बन्ध पतञ्जलि के प्रवचन से है, न कि योग का । ] पतञ्जलि का व्यापार यदि [ प्रवचन करना न होकर ] अभिधान करना हो तब तो योग का आरम्भ मानें - यही विभाजन रेखा है । तब योगशास्त्र के आरम्भ की सम्भावना हो सकती है । ( ७. योग का लक्षण और समाधि )
अत्र चानुशासनीयो योगश्चित्तवृत्तिनिरोध इत्युच्यते । ननु युजिर्योग इति संयोगार्थतया परिपठिताद् युजेनिष्पन्नो योगशब्दः संयोगवचन एव स्यान्न तु निरोधवचनः । अत एवोक्तं याज्ञवल्क्येन -
संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः । इति ।
यहाँ यह कहना है कि जिस योग का अनुशासन करना अभीष्ट है उसका लक्षण है, चित्त की वृत्तियों का निरोध । अब प्रश्न हो सकता है कि 'युज् = योग करना' इस प्रकार संयोग के अर्थ में पढ़े गये युज्-धातु से बना हुआ योग शब्द संयोग का वाचक हो सकता है निरोध का वाचक नहीं । इसीलिए याज्ञवल्क्य ने कहा है- 'जीवात्मा और परमात्मा के संयोग को ही योग कहा गया है ।'