________________
५६४
सर्वदर्शनसंग्रहेहुई । अतः योगानुशासन शमादि के बाद नहीं होता।] शमादि के पश्चात् तो जिज्ञासा
और ज्ञान उत्पन्न होते हैं, यह श्रुतियों में भी कहा है-'इसलिए शमयुक्त, दमयुक्त, उपरत होकर, तितिक्षा लिये हुए और समाधान ( विश्वास ) से युक्त होकर पुरुष आत्मा में ही आत्मा को देख सकता है' (बृ० उ० ४।४।२३)। [ शान्त = अन्तःकरण की तृष्णा से रहित । दान्त = बाह्येन्द्रियों पर संयम रखकर । उपरत = सभी इच्छाओं से मुक्त होकर । तितिक्षु = जीवन की रक्षा करते हुए ठंड, गर्मो आदि विषमों को सहनेवाला। समाहित 3 केवल आत्मा में ही चित्त की स्थापना करके । ]
[अब एक और प्रश्न होगा कि 'शमादि के बाद' अर्थ हम भले ही नहीं लें किन्तु अनुशासन के पूर्व नियमतः जो शास्त्रकार की तत्त्वप्रकाशनेच्छा आती है-उसे ही ( उसके बाद होना ) 'अथ' का अर्थ क्यों नहीं मान लें ? इस पर उत्तर देते हैं- ] 'अथ' शब्द का वर्ष 'तत्त्वज्ञान का प्रकाशन करने की इच्छा के पश्चात्' भी नहीं है । कारण यह है कि यदि ऐसा सम्भव हो तो भी शास्त्रकार ने जिस इच्छा के बाद शास्त्र का निर्माण किया उसका शान ] न तो श्रोताओं के योगविषयक ज्ञान के लिए ही उपयोगी होगा और न उनकी योगविषयक प्रवृत्ति के ही लिए । (ज्ञान या प्रवृत्ति दोनों में से किसी का कारण वह नहीं हो सकता ) अतः उसके आनन्तर्य (बाद होना ) का कथन निष्फल होने के कारण वर्णन करने योग्य भी नहीं है। [ये बातें सूत्रकार की तत्त्वज्ञानप्रकाशनेच्छा को अनुशासन के पूर्व नियमतः होना मानकर ही कही गई हैं, किन्तु वास्तव में यह प्रकाशनेच्छा पूर्ववर्ती हो नहीं सकती-इसे ही आगे स्पष्ट करते हैं । ]
तवापि निःश्रेयसहेतुतया योगानुशासनं प्रमितं न वा? आये तदभावेऽपि उपादेयत्वं भवेत् । द्वितीये तद्भावेऽपि हेयत्वं स्यात् । प्रमितं पास्य निःश्रेयसनिदानत्वम् ।।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोको जहाति।
(का० २।१२ ) इति श्रुतेः। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि। (गी० २।५३ ) इति स्मृतेश्न।
आप लोगों के पक्ष में भी यह प्रश्न हो सकता है कि योगानुशासन को निःश्रेयस ( मोक्ष ) के कारण के रूप में आप स्वीकार करते हैं या नहीं ? यदि पहला विकल्प लेते हैं [ कि योगशास्त्र मोक्ष का कारण है ] तब तो उसके (= तत्त्वज्ञान के प्रकाशन की इच्छा के ) अभाव में भी योगशास्त्र की उपादेयता रहेगी ही। [ योगशास्त्र से यदि मोक्ष मिले तो ज्ञान-प्रकाशन की इच्छा न होने पर भी इसे लिखना ही पड़ेगा ] जब यदि योगानुशासन को मोक्ष का हेतु सिद्ध नहीं कर सकते हैं तो [ तत्त्वज्ञान के प्रकाशन की इच्छा ]