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पातब्बल-मर्शनम्
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हो सकता । अहित ( अनिन्द्य ) तथा अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति करना मंगल है। अभीष्ट वस्तु वही है जिसकी कामना लोग सुख की प्राप्ति या दुःख की निवृत्ति के रूप में करें। योगानुशासन न तो सुख है ( सुखजनक भले ही है ) और न दु:ख को निवृत्ति को योगानुशासन कहते हैं। अतः यह मंगल नहीं है । इस प्रकार 'योगानुशासन मंगल है', यह अर्थ सिद्ध हो ही नहीं सकता । ( संपनीपद्यते = सम् +/पद् + यङ् = पुनः पुनः सम्पद्यते, भृशं सम्पद्यते)।
विशेष-जैसा कि ऊपर कह चुके हैं मंगल 'अथ' शब्द का वाच्यार्थ नहीं है केवल उसे 'अर्थ' शब्द प्रकट कर सकता है। योगानुशासन स्वतः मंगल नहीं है यह सिद्ध कर ही चुके हैं । अब उस प्रश्न का विश्लेषण आगे करेंगे।
मृदङ्गध्वनेरिवाथशब्दश्रवणस्य कार्यतया मङ्गलस्य वाच्यत्वलक्ष्यत्वयोरसम्भवाच्च । यथाथिकाओं वाक्यार्थे न निविशते तथा कार्यमपि न निविशेत । अपदार्थत्वाविशेषात् । पदार्थ एव वाक्यार्थे समन्वीयते । अन्यथा शब्दप्रमाणकानां शाब्दी ह्याकाङ्क्षा शब्देनैव पूर्यत इति मुद्राभङ्गः कृतो भवेत् ।
जिस प्रकार मंगल मृदंग ( ढोलक ) को ध्वनि [ का कार्य ] है उसी प्रकार वह 'अर्थ' शब्द के श्रवण ( या उच्चारण ) का भी कार्य ही है। अत: मंगल न तो [ अथ का ] वाच्यार्थ हो सकता और न ही लक्ष्यार्थ। [ अथ शब्द का उच्चारण करने से मंगल की उत्पत्ति होती है, अथ शब्द का वह वाच्यार्थ नहीं। यदि वाच्यार्थ नहीं है तो लक्ष्यार्थ भी नहीं, क्योंकि लक्ष्यार्थ वाच्यार्थ से ही सम्बद्ध रहता है। जिस प्रकार अर्थापत्ति से उत्पन्न अर्थ वाक्यार्थ के साथ अन्वित नहीं हो सकता उसी प्रकार [ मंगल का यह ] कार्य-अर्थ भी वाक्यार्थ में नहीं आ सकता । कारण यह है कि दोनों में एक तरह से ही पद के अर्थ का तिरस्कार होता है । वाक्यार्थ से सम्बन्ध उसी का हो सकता है जो पद का अपना अर्थ हो। यदि ऐसा नहीं होता तो वैयाकरणों ( शब्द को प्रमाण माननेवाले ) के उस नियम का भंग होता जिसमें यह कहा जाता है कि शाब्दी ( शब्द से सम्बद्ध ) आकांक्षा शब्द से पूर्ण हो सकती है । [ कोई शब्द जब किसी वाक्यं के अर्थ को प्रकाशित करने में असमर्थ हो तथा किसी दूसरे शब्द की अपेक्षा रखे तो उसे शाब्दी आकांक्षा कहते हैं-इसकी पूर्ति शब्द से ही हो सकती है, किसी दूसरे साधन से नहीं। यदि अर्थापति के अर्थ को या कार्यरूप अर्थ (जैसे अथ का अर्थ मंगल ) को वाक्यार्थ से मानने लगेंगे तो शाब्दी आकांक्षा की पूर्ति शब्द से न होकर आर्थिकार्थ या कार्यार्थ से भी होने लगेगी किन्तु वास्तव में तो शब्दार्थ से होती है । अतः उक्त नियम खण्डित हो जायगा।]
विशेष-'देवदत्त दिन में नहीं खाता, पर मोटा है' इस वाक्य में 'रात्रि-भोजन' अर्थापत्ति से प्राप्त अर्थ है, वाक्य से ऐसा अर्थ हमें मिल नहीं सकता । इसे आर्थिकार्थ कहते