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सर्वदर्शनसंग्रहे
कहते हैं । वह और कोई नहीं, आत्मा ही है । आत्मा ही परिणत होनेवाली वस्तु-बुद्धितत्त्व-पर प्रतिसंक्रान्त अर्थात् प्रतिबिम्बित-सी होती है तथा उसकी वृत्तियों का अनुसरण भी करती है । इस प्रकार बुद्धि में वह चिच्छक्ति ( आत्मा ) प्रतिबिम्बत होती है, उस पर बुद्धि का प्रतिबिम्ब पड़ता है तथा बुद्धि की वृत्तियों का अनुकरण भी वह करने लगती है [ जो धर्म बुद्धि के होते हैं उन्हें आत्मा अपने धर्म समझने लगती है। यही कारण है कि बुद्धि का सत्त्वांश तप्त होता है और आत्मा अपने को तप्त समझती है। रजोगुणांश तप्त करता है और आत्मा अपने को ही तापक समझती है । तमोगुण तो यह नाटक ही दिखाता है। बुद्धि और आत्मा का अभेद हो जाने से आत्मा को ज्ञानी कहने लगते हैं और बुद्धि को चेतन कहने लगते हैं, पर वस्तुतः दोनों पृथक हैं ।
तथा शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति, तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासत इति । इत्थं तप्यमानस्य पुरुषस्यादर-नैरन्तर्यदीर्घकालानुबन्धि-यम-नियमाद्यष्टाङ्गयोगानुष्ठानेन परमेश्वरप्रणिधानेन च सत्त्वपुरुषान्यताख्यातावनुपप्लवाय जातायामविद्यादयः पञ्च क्लेशाः समूलकार्ष कषिता भवन्ति । कुशलाकुशलाश्च कर्माशयाः समूलघातं हताः भवन्ति । ततश्च पुरुषस्य निर्लेपस्य कैवल्येनावस्थानं कैवल्यमिति सिद्धम् ।
इस तरह, यद्यपि पुरुष ( आत्मा ) शुद्ध या निर्लेप है, किन्तु बुद्धिगत (विषयों का आकार ग्रहण करने के रूप में ) प्रत्ययों (विचारों, Ideas ) का अनुकरण करता है । उन विचारों का अनुकरण करते हुए, यद्यपि उसके स्वरूप का नहीं है ( = बुद्धि के स्वरूप नहीं है ) तथापि बुद्धि के रूप में ही प्रतिभासित होता है। जो पुरुष इस रूप में सन्तप्त हो रहा है उसे, आदर ( तप, श्रद्धा आदि ) के साथ, निरन्तर दीर्घकाल तक चलनेवाले यमनियमादि अष्टांग योग का अनुष्ठान करने से तथा परमेश्वर के प्रति अपने सभी कर्मों का अर्पण कर देने से, सत्त्व ( बुद्धिगुण ) और पुरुष की अन्यता-ख्याति ( भेदज्ञान ), सभी विघ्न-बाधाओं से रहित होकर उत्पन्न होती है तथा उसी समय अविद्या आदि पांचों क्लेश मूल से ही उखड़ जाते हैं । [ समूलकाषम्-समूल शब्द के उपपद में होने से कष् + णमुल ( पा० सू० ३।४।३४ ) । उसके बाद कष धातु का ही अनुप्रयोग ] । ___इसके साथ-साथ पुण्य और पाप ( कुशल-अकुशल ) के रूप में जो कर्मों के भाण्डार हैं वे भी जड़ से नष्ट कर दिये जाते हैं । [ क्लेश का मूल है संस्कार, तो संस्कारों के साथ क्लेश, और कर्माशय भी नष्ट हो जाते हैं । समूल शब्द उपपद में है, हनु + णमुल(पा० सू० ३।४।३६ ) । ] इसके बाद निर्लेप (शुद्ध) पुरुष अकेला ( केवल रूप में ) अवस्थित होता है, इसे ही कैवल्य कहते हैं-यह सिद्ध हुआ। [जिस सम्बन्ध के चलते एक सम्बन्धी के धर्म दूसरे सम्बन्धी में कहे जाते हैं वह लेप है । जब पुरुष उस प्रकार के सम्बन्ध से मुक्त हो जाता है-प्रकृति से पृथक् रूप में अवस्थित होता है, वही तो मोक्ष है ।