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सर्वदर्शनसंग्रहेहै । तप के प्रभाव से भी अशुद्धि दूर होकर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि होती है। समाधि से उत्पन्न होनेवाली सिद्धियों का वर्णन विभूतियों के रूप में निर्दिष्ट है । अणिमादि, अजरत्व, अमरत्व, आकाशगमन आदि मुख्य सिद्धियाँ हैं । उक्त अष्टांग योग से योग की प्राप्ति होती है, तव प्रकृति-पुरुष का भेद साक्षात्कार के रूप में मिलता है। पुरुष का ज्ञान हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है-मोक्ष का अर्थ है दुःख का आत्यन्तिक विनाश । इन सबों का निरूपण चतुर्थ पाद में हुआ है। ]
प्रधान आदि पचीस तत्त्व तो पहले-जैसे ( सांख्य-दर्शन के अनुसार ) ही यहाँ भी स्वीकृत हैं । हाँ, छब्बीसवाँ तत्त्व परमेश्वर है जो क्लेश ( अविद्यादि ), कर्म, विपाक तथा आशय से अस्पृष्ट (अछूता ) रहनेवाला पुरुष ही है (दे० यो० सू० १२४ )। अपनी इच्छा से ही वह शरीरों का निर्माण करके लौकिक और वैदिक सम्प्रदायों का प्रवर्तन करते हए, संसार की दावाग्नि में जलनेवाले जीवों पर अनुग्रह भी करता है। सांख्य-दर्शन के सारे सिद्धान्तों को मानने पर भी पातञ्जल-दर्शन की एक विशेषता है कि इसमें ईश्वर की सत्ता मानी जाती है । ईश्वर का लक्षण पतञ्जलि इस रूप में देते हैं--क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ( १।२४ ) । अविद्या आदि क्लेशों का वर्णन आगे करते हैं जिसके कारण क्लेश कहलाते हैं । निषिद्ध और विहित दो प्रकार के कर्म होते हैं जिन्हें दूसरे शब्दों में धर्म और अधर्म कहते हैं । कर्म के फल विपाक कहे जाते हैं जो जन्म, आयु और भोग के रूप में तीन हैं । जो मन में अवस्थित रहते हैं ( आशेरते, वे आशय अर्थात् संस्कार हैं । इन सब मानवीय विशेषताओं से ईश्वर तीनों कालों में अछूता रहता है। सांख्य-दर्शन के जीवों ( पुरुषों ) को ये दोष व्याप्त कर लेते हैं किन्तु ईश्वर इन से परे है। ईश्वर अपनी इच्छा से एक या एक साथ ही अनेक शरीर बना सकता है-इसे निर्माणकाय कहते हैं । ईश्वर सम्प्रदाय का प्रवर्तन तथा जीवों पर अनुग्रह करता है ये दोनों लिंग ईश्वर का अनुमान कराने में सहायक होते हैं अर्थात् ईश्वर अनुमेय भी है।
(२. मोक्ष के विषय में शंका और उसका समाधान ) ननु पुष्करपलाशवनिर्लेपस्य तस्य तप्यभावः कथमुपपद्यते येन परमेश्वरोऽनुग्राहकतया कक्षीक्रियत इति चेत्-उच्यते । तापकस्य रजसः सत्त्वमेव तप्यं बुद्धधात्मना परिणतमिति सत्त्वे परितप्यमाने तदारोपवशेन तदभेदावगाहिपुरुषोऽपि तप्यत इत्युच्यते । तदुक्तमाचार्य:१. सत्त्वं तप्यं बुद्धिभावेन वृत्तं
भावा ये वा राजसास्तापकास्ते। तप्याभेदग्राहिणी तामसी या .
वृत्तिस्तस्यां तप्य इत्युक्त आत्मा ॥ इति । अब प्रश्न हो सकता है कि कमल के पत्ते की तरह निर्लेप ( किसी से भी असम्बद्ध ) जीव ताप का विषय ( तप्य ) कैसे बन सकता है जिसके चलते उस पर अनुग्रह करने के